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________________ , ११८ में होता है उसमें प्रतज्ञान हेतु है इसलिए वह व्यापार श्रुत है । श्रुतज्ञानवाला आस्मा आता जाता है, शिर और हाथ आदिको हिलाता है, इन चेष्टाओं के साथ श्रुत उपयोग वाले आत्मा का संबंध है। परन्तु शास्त्र ज्ञाता लोग इन व्यापारों के लिए श्रुत शब्द का प्रयोग नहीं करते । शास्त्र ज्ञाताओं को रूढि उच्छवास आदि में ही है । जो सुना जाता है वह श्रुत है। गमन आगमन और शिरका हिलाना आदि चेष्टायें दिखाई देती हैं पर सुनाई नहीं देतीं । अकार आदि शब्द सुने जाते हैं. परन्तु वे वर्णात्मक हैं । उच्छ्वास आदि वर्णात्मक नहीं और सुने जाते हैं । इसलिये वे शास्त्र ज्ञाताओं की रूढि के अनुसार अनक्षर श्रुत हैं । मूलम् - समनस्कस्य श्रुतं सज्ञिश्रुतम् । तद्रिपरीतमसज्ञिश्रुतम् । सम्यकश्रुतम् अङ्गानङ्ग प्रविष्टम् , लौकिकं तु मिथ्याश्रुतम् । स्वामित्वचिन्तायां तु भजना-- सम्यग्दृष्टिपरिगहोतं मिथ्याश्रतमपि सम्यकश्रुतमेव वितथभाषित्वादिना यथास्थानं तदर्थविनियोगात , विपर्ययान्मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतं च सम्यकश्रुतमपि मिथ्याश्रुतमेवेति । अर्थ--(३) संज्ञी-समनस्क जीवों का श्रुतज्ञान संज्ञि श्रुत है। (४) असंज्ञीजीवों का श्रुत असंज्ञि श्रुत है। (५) अंगप्रविष्ट और अनंग प्रविष्ट भेद से सम्यक
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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