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११.
है तब उत्पत्ति में कम होने पर भी प्रतीत नहीं होता । जब केवल अयायको प्रतीति होती है तब भी अवग्रह और ईहा की उत्पत्ति अपाय से पूर्व कालमें हो चुकी होती है, परन्तु शीघ्रगति से हुई है इस लिए उसकी प्रतीति नहीं होती । वहाँ पर अपाय ही हुआ है इस प्रकार का भ्रम हो जाता है। इसी रीति से जिस अर्थ में अति दृढ सस्कार है उसमें प्रथम से ही स्मृति प्रकट हुई है इस रीतिका ज्ञान होता है । यह ज्ञान भी भ्रम है वहाँ भी स्मृति से पूर्व कालमें अवग्रह ईहा और अपाय हो चुके होते हैं
[ -: मतिज्ञान के भेद - प्रभेदः - ] मूलम् - तदेवम् अर्थावग्रहादयो मनइन्द्रियैः षोढा भिद्यमाना व्यञ्जनावग्रहचतुर्भेदैः सहाष्टाविंशति मतिभेदा भवन्ति । अथवा बहुबहुविध क्षिप्रा ऽनिश्रित निश्चित-ध्रुवैः सप्रतिपक्षैद्वदशभिर्भेदैर्भिन्नानामेतेषां षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि भवन्ति ।
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अर्थ - इस रीति से अर्थावग्रह, ईहा, अपाय इनवें प्रत्येक ज्ञान मन और पाँच इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता है । इसलिए प्रत्येक अवग्रह आदि के छह भेद होजाते हैं चारों में से प्रत्येक के छे भेद मिलकर चौबीस हो जाते हैं। ये चौबीस व्यञ्जनाग्रह के चार भेदों के साथ मिलकर अड्डाईस हो जाते हैं । इस रीति से मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद हैं।