SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ रूप नहीं हो सकता । व्यञ्जन रूप इन्द्रिय का शब्द आदि रूप अर्थ के साथ संबंध ही व्यञ्जनावग्रह है और संबंध आलोचनात्मक नहीं है । मूलम् - किश्व, आलोचनेनेहां विना झटित्येवाविग्रहः कथं जन्यताम् ! युगपच्चे हावग्रहौ पृथगसङ्ख्येयसमयमानौ कथं घटेताम् ? इति विचारणीयम् । अर्थ - अन्य आपत्ति भी है । ईहा के बिना आलोचन तुरन्त ही अर्थावग्रह को किस प्रकार उत्पन्न करेगा ? यदि कहो ईहा और अवग्रह एक काल में होते हैं तो वह भी युक्त नहीं है । ईहा और अवग्रह में से प्रत्येक का काल भिन्न है । ईहा का काल असंख्येय समय का है और अर्थावग्रह का काल एक समय का हैं इसलिए वे दोनों एक काल में किस प्रकार हो सकेंगे ? यह विचारना चाहिये । विवेचना- आपके मत के अनुसार " यह शब्द है” इस प्रकार का निश्चय अर्थावग्रह है । ईहा बिना नित्रय नहीं हो सकता, इसलिये व्यञ्जनावग्रह रूप आलोचन अनन्तर क्षण में ही निश्चय की उत्पत्ति नहीं कर सकता । इस आपत्ति को दूर करने के लिये यदि आप ईहा और अवग्रह को एक काल में उत्पन्न मानें तो वह युक्त नहीं है । आपके मत में प्रर्थावग्रह निश्चय रूप है और ईहा अनिश्चयरुप है । अनिश्चय और निश्चय स्वभाव वाले एक काल में नहीं उत्पन्न हो सकते । परस्पर 1
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy