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________________ चग्रह के अन्तिम समय में अर्थावग्रह ही उत्पन्न होता है, इसलिये आलोचन के लिये समय नहीं है । तृतीयपक्ष भी अयुक्त है। इस पक्ष के अनुसार तो व्यञ्जनावग्रह का दूसरा नाम आलोचन हो जाता है और वह अर्थ से शून्य है इसलिये वह अर्थ का आलोचन नहीं हो सकता। विवेचना-आलोचन और अर्थावग्रह को स्वीकार करने वाला व्यंजनावग्रह को मानता है । इस कारण आलोचन के विषय में जिज्ञासा होती है, वह आलोचन व्यखनावग्रह से भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि भिन्न है तो व्यंजनावग्रह से पूर्वकाल में होता है अथवा उत्तर काल में ? अर्थ ज्ञान के लिये शब्द आदि रूप अर्थ के साथ कान आदि इन्द्रियों का संबंध आवश्यक है यह संबंध व्यञ्जनावग्रह से पूर्व काल में नहीं हो सकता इस कारण आलोचन ज्ञान की उत्पत्ति पूर्व काल में नहीं हो सकती। इन्द्रिय और अर्थ का संबंध कारण है और आलोचन कार्य है। कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि व्यञ्जनावग्रह के उत्तर काल में आलोचन हो तो प्रथम व्यञ्जनावग्रह फिर आलोचन और उसके पीछे अर्थावग्रह यह क्रम होगा । परन्तु व्यञ्जनावग्रह के अन्तिम काल में अर्थावग्रह ही उत्पन्न होता है, इन दोनों के मध्य में इस प्रकार का कोई काल नहीं जिसमें आलोचन नामक ज्ञान को उत्पत्ति हो सके। तृतीय पक्ष के अनुसार व्यञ्जनावग्रह का नाम आलोचन हो जाता है । परन्तु व्यञ्जनावग्रह अर्थ से शून्य है इसलिये वह अर्थ का आलोचन
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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