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विवेचना-इस मत के अनुसार समस्त ज्ञाताओं को पहले अव्यक्त सामान्य का ज्ञान होता है। जात मात्र बालक और विशेष ज्ञानी पुरुष के भेद से सामान्य और विशेष ज्ञान में भेद नहीं होता । सामान्य ज्ञान पहले होता है और वस्तु के अन्यों से भिन्न स्वरूप का ज्ञान पीछे होता है। प्रथम काल का ज्ञान आलोचन है और पीछे के कालका ज्ञान अर्थावग्रह हैं। यह मत भी अर्थावग्रह को विशेष का प्रकाशक मानता है और सूत्र को भी इस अर्थका प्रकाशक कहता है ।
मूलम्-तदसत् । यत आलोचनं व्यजनावग्रहात् पूर्व स्यात् , पश्चादा, स एव वा ? नाद्यः; अर्थव्यजनसम्बन्धं विना तदयोगात् । न द्वितीयः, व्यन्जनावग्रहान्त्यसमयेऽर्थावग्रहस्यैवोत्पादादालोचनानवकाशात् । न तृतीय व्यजनावग्रहस्यैव नामान्तरकरणात् , तस्य चार्थशन्यत्वेनालोचनानुपपत्त।
अर्थ-यह मत युक्त नहीं, इसमें हेतु इस प्रकार हैआप आलोचन को अर्थावग्रह का कारण कहते हो । वह आलोचन व्यञ्जनावग्रह से पूर्वकाल में होता है अथवा उत्तर काल में अथवा व्यञ्जनावग्रह ही आलोचन है. १ इन तीनों में से प्रथम कल्प नहीं हो सकता, कारण अर्थ और व्यंजन के संबंध से पूर्व आलोचन संभव नहीं है । द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं । व्यञ्जना