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________________ अपेक्षा अधिक विशेष ज्ञानी को विशेष धर्मों का अधिक संख्या में शान, होना चाहिये । यह शंख शब्द है अथवा यह वीणा का शब्द है, इत्यादि रूप से विशेष ज्ञान भी अर्थावग्रह के प्रथम समय में होना चाहिये। लोगों में ज्ञान को न्यूनाधिकता रहती है। सूत्र, अर्थावग्रह के भेद को अल्प और अधिक ज्ञान वाले पुरुषों के भेद से नहीं: कहता । "वह जानता नहीं यह कौनसा शब्द है" सत्र का यह भाग समस्त लोगों के लिये है. जात मात्र बालक और संकेत आदि के ज्ञाता के लिये समान रूप से है। प्रथम काल में धर्मों का ज्ञान और उत्तर काल में विशेषों का ज्ञान यह सामान्य नियम है। उत्कृष्ट बद्धिवाला मनुष्य भी धर्मों को बिना जाने अनेक विशेष धर्मों को नहीं जान सकता । अत: यह मत अयुक्त है। इस विषय में अन्यों के मत का प्रत्याख्यान] मुलम्-अन्ये तु-"आलोचनपूर्वकमर्थावग्रहमाचक्षते, तत्रालोचनमव्यक्तसामान्यग्राहि, अर्थावग्रहस्त्वितरव्यावृत्तवस्तुस्वरूप ग्राहोति न सूत्रानुपपत्तिः'-इति; अर्थ-अन्य लोग कहते हैं-पहले आलोचन होता है पीछे अर्थावग्रह होता हैं। उनमें आलोचन अव्यक्त सामान्य को जानता है और अर्थावग्रह अन्यों से भिन्न वस्तु के स्वरूप को जानता है। इसलिये सूत्र के साथ असंगति नहीं है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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