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________________ २४०] पञ्चाध्यायी। दूसरा माउस आदि स्थानीय भाजपा की सजा का समापन नीयके उदय हुए आदिके दो रम्यक्वोंमें अनित्यता आ नही सक्ती है तथा हम (शकाकार) यह भी विश्वास नहीं कर सक्ते हैं कि स्वयं दर्शन मोहनीयका उपशम ही दर्शनमोहनीयके उदय अथवा उत्कर्षका कारण हो जाता हो । भावार्थ-उपशमसम्यक्त्व और क्षयोपशम सम्यक्त्व दोनों ही अनित्य हैं अर्थात् दोनों ही छूटकर मिथ्यात्व रूपमें आसक्ते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व ही एक ऐसा है जो होनेपर फिर छूट नहीं सक्ता है । शंकाकार पहले दो सम्यक्त्त्वोंके विषयमें ही पूंछता है कि दर्शनमोहनीयका जिस समय उपशम अथवा क्षयोपशम हो रहा है उस समय किस कारणसे दर्शनमोहनीय कर्मका उदय हो जाता है जो कि सम्यक्त्वके नाशका हेतु है। स्वयं दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम अथवा क्षयोपशम तो उसके उदयमें कारण हो नहीं सक्ता है । यदि ऐसा हो तो आत्माके स्वाभाविक भाव ही कर्मबन्धके कारण होने लगेंगे। और विना कारण दर्शनमोहनीयका उदय हो नहीं सक्ता है इस लिये अगत्या परोदय (राग)से उसका उदय और बन्ध मानना पड़ता है, शंकाकारने घुमाव देकर फिर भी वही " सराग अवस्थामें ज्ञानचेतना नहीं हो सकती है " शंका उठाई है। उत्तर- . नैवं यतोऽनभिज्ञोसि पुद्गलाचिन्त्यशक्तिषु । प्रतिकर्म प्रकृत्यायैर्नानारूपासु वस्तुतः ॥९२६ ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि शंकाकारने जो ऊपर शंका उठाई है वह सर्वथा निर्मूल है। आचार्य शंकाकारसे सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि अभी तुम पुद्गलकी अचिन्त्य शक्तियों के विषयमें बिलकुल अजान हो, तुम नहीं समझते हो कि हर एक कर्ममें प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग आदि अनेक रूपसे फलदान शक्ति भरी हुई है। अस्त्युदयो यथानादेः स्वतश्चोपशमस्तथा । उदयः प्रशमो भूयः स्यादागपुनर्भवात् ॥ ९२७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार अनादि कालसे कर्मोंका उदय होरहा है उसी प्रकार कर्मों का उपशम भी स्वयं होता है । इसी प्रकार उपशमके पीछे उदय और उदयके पीछे उपशम बार २ होते रहते हैं । यह उदय और उपशमकी शृङ्खला जब तक मोक्ष नहीं होती है बराबर होती रहती है। यदि ऐसा न माना जाय तो दोषअथ गत्यन्तरादोषः स्यादसिडत्वसंज्ञकः । दोषः स्यादनवस्थात्मा दुर्वारोन्योन्यसंश्रयः ॥ ९२८ ॥ अर्थ-यदि ऊपर कही हुई व्यवस्था न मानी जाय और दूसरी ही रीति स्वीकार
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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