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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। [२४९ सम्यग्दर्शनके साथ और भी सद्गुण होते हैंएवमित्यादयश्चान्ये सन्ति ये सद्गुणोपमाः । सम्यक्त्वमात्रमारभ्य ततोप्यूज़ च तदतः ॥ ९४० ॥ स्वसंवेदनप्रत्यक्षं ज्ञानं स्वानुभवायम् । वैराग्यं भेदविज्ञानमित्याद्यस्तीह किं बहु ॥ ९४१ ॥ अर्थ-इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके साथ तथा उसके आगे और भी सद्गुण प्रकट होते हैं । वे सब सम्यग्दर्शन सहित हैं इसीलिये सद्गुण हैं। उनमेंसे कुछ ये हैं-स्वसंवेदन प्रत्यक्ष स्वानुभव ज्ञान, वैराग्य, और भेद विज्ञान । इत्यादि सभी गुण सम्यग्दर्शनके होनेपर ही होते हैं इससे अधिक क्या कहा जाय । भावार्थ-सम्यग्दर्शनके होनेपर ही भेद विज्ञानादि उत्तम गुणोंकी,प्राप्ति होती है । अन्यथा नहीं होती । दूसरा यह भी आशय है कि जो गुण सम्यग्दर्शनके साथमें होते हैं वेही सद्गुण हैं। विना सम्यग्दर्शनके होनेवाले गुणोंको सद्गुणोंकी उपमा भले ही दी जाय, परन्तु वास्तवमें वे सद्गुण नहीं हैं। चौथे गुणस्थानसे पहले पहले भेदविज्ञानादि ( सद्गुण ) होते भी नहीं हैं। _चेतना तीन प्रकार हैअद्वैतेपि त्रिधा प्रोक्ता चेतना चैवमागमात् । ययोपलक्षितो जीवः सार्थनामास्ति नान्यथा ॥ ९४२॥ अर्थ-यद्यपि चेतना एक है तथापि आगमके अनुसार उस चेतनाके तीन भेद हैं उस चेतनासे विशिष्ट जीव ही यथार्थ नाम धारी कहलाता है । अन्यथा नहीं । भावार्थ-यद्यपि चेतना एक है तो भी कर्मके निमित्तसे उसके कर्म चेतना, कर्म फल चेतना और ज्ञान चेतना ऐसे तीन भेद हैं उनमें आदिकी दो चेतनायें मिथ्यात्वके साथ होनेवाली हैं, और तीसरी ज्ञान चेतना सम्यग्दर्शनके साथ होने वाली है । इन तीनों चेतनाओं का खुलासा वर्णन पहले आ चुका है। आशङ्काननु चिन्मात्र एवास्ति जीवः सर्वोपि सर्वथा । किं तदाद्या गुणाश्चान्ये सन्ति तत्रापि केचन ॥ ९४३ ॥ अर्थ-क्या सम्पूर्ण जीव सर्वथा चैतन्यमात्र ही है अथवा चैतन्यके साथ उसके और भी गुण होते हैं ? उत्तर-हां होते हैं उनमें से कुछ गुण नीचे बतलाये जाते हैं। - सभी पदार्थ अनन्त गुणात्मक हैंउच्यतेनन्तधर्माधिरूढोप्येकः सचेतनः । अर्थजातं यतो यावत्स्यादनन्तगुणात्मकम् ॥ ९४४ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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