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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [२३९ आचार्य कहते हैं कि यदि रागभाव ही दर्शन मोहनीयका बन्ध तथा उदय कराने में समर्थ है तो आत्मामें सम्यक्त्वकी कभी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है । रागभावसे सम्यक्त्वकी हानि नहीं होसकती है- न स्यात्सम्वत्वप्रध्वंसश्चारित्रावरणोदयात् । रागेणैतावता तत्र दृङ्मोहेऽनधिकारिणा ॥ ९२२ ॥ अर्थ — चारित्रावरण कर्मके उदयसे ( रागभावसे) सम्यक्त्वका विघात नहीं हो सकता है । क्योंकि रागभावका दर्शनमोहनीय कर्मके विषय में कोई अधिकार नहीं है । सिद्धान्त कथन यतश्चास्त्यागमात् सिद्धमेतदङ्मोहकर्मणः । नियतं स्वोदयाद्वन्धप्रभृति न परोदयात् ॥ ९२३ ॥ 1 अर्थ – क्योंकि यह बात आगमसे सिद्ध है कि दर्शन मोहनीय कर्मका वन्ध उत्कर्ष आदि दर्शन मोहनीय कर्मके उदयसे ही नियमसे होता है । किसी अन्य ( चारित्र मोहनीय ) के उदयसे दर्शनमोहनीयका वन्ध, उत्कर्ष, उदय कुछ नहीं होता । भावार्थ - जिस कार्यका जो कारण नियत है उसी कारण से वह कार्य सिद्ध होता है, यदि कार्यकारण पद्धतिको उठा दिया जाय तो किसी भी कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। इसके सिवा संकर, आदि अनेक दूषण भी आते हैं। क्योंकि कारण भेदसे ही कार्य भेद होता है । अन्यथा किसी पदार्थकी ठीक २ व्यवस्था नहीं हो सकती है । सिद्धान्तकारोंने पहले गुणस्थान में दर्शनमोहनीयका उदय कहा है वहीं पर उसका स्वोयमें बन्ध भी होता है । यदि दर्शनमोहनीयका वन्ध अथवा उदय आदि किसी दूसरे कर्मके उदयसे भी होने लगे तब तो सा पहला ही गुणस्थान रहेगा। अथवा गुणस्थानों की शृङ्खा ही टूट जायगी । गुणस्थानोंकी अव्यवस्था होने पर संसार मोक्ष अथवा शुद्ध अशुद्ध भावोंकी व्यवस्था भी नहीं रह सकती है, इसलिये दर्शनमोहनीयके उदय होने पर ही उसका बन्ध उत्कर्ष आदि मानना न्यायसंगत है । शंकाकार | ननु चैवमनित्यत्वं सम्यक्त्वाद्यद्वयस्य यत् । स्वतः स्वस्योदयाभावे तत्कथं स्यादहेतुतः ॥ ९२४ ॥ न प्रतीमो वयं चैतद्द्दङ्मोहोपशमः स्वयम् | हेतुः स्यात् स्वोदयस्योच्चैरुत्कर्षस्याऽथवा मनाक् ॥ ९२५ ॥ अर्थ - शंकाकारका कहना है कि यदि अपने उदयमें ही अपना बन्ध उत्कर्ष हो अथवा परोदयमें परका उदय न हो तो आदिके दो सम्यक्त्वों में अनित्यता कैसे आ सक्ती है ? क्योंकि विना कारण अपना उदय अपने आप तो हो नहीं सकेगा, और विना दर्शनमोह
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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