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________________ २३८ पञ्चाध्यायी। [ दूसरा निज परिणाम नहीं है किन्तु कर्मोंके उदयसे होने वाली वैभाविक अवस्था है। सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों ही आत्माके स्वाभाविक गुण हैं । इसलिये उनमें राग भाकहो ही नहीं सक्ता है। ज्ञानचेतनाको भी राग नष्ट नहीं कर सक्ता हैअनिघ्ननिह सम्यक्त्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वकः । नूनं हन्तुं क्षमो न स्याज्ञानसंचेतनामिमाम् ॥ ९१९ ॥ अर्थ-बुद्धिपूर्वक राग सम्यक्त्वका घात नहीं कर सकता है। इसलिये वह सम्यक्त्वके साथ अविनाभावी ज्ञानचेतना (लब्धिरूप)का भी घात नियमसे नहीं कर सक्ता है । भावार्थ-राग भाव आत्माके चारित्रगुणका ही विघात करेगा । वह न तो सम्यात्वका ही विघात कर सकता है और न सम्यक्त्वके साथ अविनाभावपूर्वक रहनेवाली ज्ञानचेतनाका ही विघात कर सकता है। इन दोनोंसे रागका कोई सम्बन्ध ही नहीं है, इसलिये चौथे गुणस्थानमें भी ज्ञानचेतना होती ही है उसका कोई बाधक नहीं हैं। जो लोग वीतराग सम्यक्त्वमें ही ज्ञानचेतना कहते थे उनका सयुक्तिक खण्डन होचुका। एसी भी तर्कणा न करोनाप्यूहमिति शक्तिः स्याद्रागस्यैतावतोपि या। बन्धोत्कर्षोदयांशानां हेतुइग्मोहकर्मणः ॥ ९२० ॥ अर्थ- रागकी ऐसी भी शक्ति है जो दर्शन मोहनीय कर्मके बन्ध, उत्कर्ष और उदयमें कारण है ऐसी भी तर्कणा न करो। ऐसा माननेमें दोषएवं चेत् सम्यगुत्पत्तिन स्यात्स्यात् दृगसंभवः। सत्यां प्रध्वंससामग्र्यां कार्यध्वंसस्य सम्भवात् ॥ ९२१॥ अर्थ-यदि राग भाव ही दर्शन मोहनीयके बन्ध उत्कर्ष और उदयमें कारण हों तो सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति ही नहीं होसकती है। फिर तो सम्यग्दर्शनका होना ही असंभव हो जायगा । क्योंकि नाशकी सामग्री रहने पर कार्यका नाश होना अश्यंभावी है । भवार्थ-पहले तो शंकाकारने सराग अवस्थामें ज्ञानचेतनका निषेध किया था, परन्तु उसका उसे उत्तर दे दिया गया कि रागका और ज्ञानचेतनाका कोई सम्बन्ध नहीं है पराश्रित दोष गुण अन्य श्रित नहीं होसकते हैं । रागभाव चारित्र गुणका ही विघातक है। वह सम्यग्दर्शन और ज्ञानका विघातक नहीं होसकता है। फिर शंकाकारने दूसरी शंका उठाई है कि यद्यपि रागभाव सम्यग्दर्शनका विघातक नहीं है, सम्यग्दर्शनका विघातक तो दर्शन मोहनी । कर्म है । तथापि रागभाव उस दर्शन मोहनीय कर्मका बन्ध कराने में तथा उसके परमाणुओं को उदयमें लानेमें समर्थ है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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