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________________ m/NMARARAM - सागारधर्मामृत [ २९ उसे कृतज्ञ कहते हैं । ऐसा पुरुष सब लोगोंको प्रिय होता है और सब लोग आवश्यक समय पर उसकी सहायता करते हैं। वशी--जो इष्ट पदार्थों में अधिक आसक्त नहीं है, जिसकी प्रवृत्ति विरुद्ध पदार्थों में नहीं है, जो पांचों इंद्रियों के विकारों को रोकनेवाला और काम क्रोध आदि अंतरंग शत्रुओंको निग्रह (वश) करनेवाला है उसे वशी कहते हैं । काम क्रोध लोभ मान मद और हर्ष ये छह अंतरंग शत्रु है, स्वस्त्रीमें अत्यंत आसक्त रहना तथा विवाहित अविवाहित परस्त्रीकी अभिलाषा करना काम कहलाता है। अपना अथवा दूसरेके नाश व हानिका कुछ विचार न करके क्रोध करना क्रोध है । सत्पात्रको दान न देना तथा विना कारण ही परद्रव्य ग्रहण करना लोभ है। अभिमान करना, योग्य वचन न मानना, और अन्य लोगों को अपनेसे छोटा मानना मान है। यौवन, सुंदरता, ऐश्वर्य, और बलके होनेसे उन्मत्त होना, हि त अहितका विचार न करना तथा इच्छानुसार क्रिया करना आदिको मद कहते हैं । विना कारण किसी दूसरेको दुख देकर अथवा जूआ शिकार आदि पापकर्म कर प्रसन्न होना, खुशी मानना हर्ष कहलाता है । इन परिवारको और समस्त लोगोंको अपने वश करना चाहता है तो कृतज्ञताका पारगामी हो अर्थात् कृतज्ञ बन, कृतघ्न मत हो क्योंकि सपूर्ण गुणोंसे भरपूर होनेपर भी कृतघ्न पुरुष सब लोगोंको क्षोमित कर देते हैं, अर्थात् सब लोग उससे प्रीति छोड देते हैं ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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