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________________ VVVVVVVV vvvvvvvvvvvvvvwvwwvvwvvvvvvvvvvwvvvvv २८ ] प्रथम अध्याय अर्थात् आगेको दूरतक सोचनेवाला होता है, और सब मनुष्योंसे विशेष जानकार होता है । बल चारप्रकार है-द्रव्यबल, क्षेत्रबल, कालबल और भावबल । ये चारों ही बल आपमें कितने हैं और दूसरेमें कितने हैं इसके विचार करनेको बलाबलविचार कहते हैं । जो कार्य बल अबलके विचार किये विना ही किया जाता है उसमें सदा विपत्ति आनेकी संभावना रहती है । जो मनुष्य किसी कार्यको प्रारंभ अथवा समाप्त करके आगामी कालमें होनेवाले उसके हानि लाभको भी उसी समय समझ लेता है अथवा विचार कर लेता है उसे दीदी कहते हैं । बस्तु अवस्तुमें, कृत्य अकृत्यमें, आप और दूसरमें क्या अंतर है इसको जो जानता है वही 'विशेषज्ञ है । इसप्रकार जिसको बल अबलका विचार है, जो दूरदर्शी है और विशेष जानकार है उसे प्राज्ञ कहते हैं। कृतज्ञ-जो दूसरेके किये हुये उपकारको २ मानता है तथा उपकार करनेवालेके हित और कुशलकी इच्छा रखता है १ प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं किं नु सत्पुरुषैरपि ॥ मनुष्यको प्रतिदिन अपने आचरण देखने चाहिये और विचार करना चाहिये कि पशुओंके समान है अथवा सज्जनोंके ?। २ विधित्सुरेनं यदिहात्मवश्यं कृतज्ञतायाः समुपैहि पारं । गुणैरुपेतोप्यखिलैः कृतघ्नः समस्तमुद्वेजयते हि लोकं ॥ यदि तू इस
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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