SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Sin ३०] प्रथम अध्याय छहों अंतरंग शत्रुओंको सदा वश रखनेवाला ही वशी| अथवा जितेंद्रिय कहलाता है। । धर्मविधिको 'सुननेवाला--स्वर्ग मोक्षके सुखके प्राप्त होनेका जो कारण है उसे धर्म कहते हैं, उस धर्मकी जो विधि है अर्थात् युक्ति और आगमके अनुसार उसकी जो स्थिति है उसका जो मार्ग अथवा कारण है उसे धर्मविधि कहते है। उस धर्मविधिको अर्थात् धर्मसाधन करनेके कारणोंको जो सदा सुनता रहता है वह धर्मविधिको सुननेवाला कहलाता है। दयालु --दुखी जीवोंके दुख दूर करनेकी जिसकी सदा इच्छा रहती है उसे दयालु कहते हैं । दया धर्मका मूल १ भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखा-दृशं भीतिवान् सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटं। धर्म शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागणाभ्यां स्थितं गृह्णन् धर्मकथाश्रुतावाधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥ जो अपने हितका विचार करता रहता है, संसारके दुखोंसे डरता है, सुखकी इच्छा करता है, शास्त्र आदिके सुननेसे जिसकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो युक्ति और आगमसे सिद्ध और कल्याण करनेवाले ऐसे दयामयी धर्मको सुनकर तथा उसका दृढ विचार कर ग्रहण करता है, जो दुराग्रह रहित और भव्य है वही धर्मशास्त्रके सुननेका अधिकारी है ऐसे मनुष्यको अवश्य उपदेश देना चाहिये। २ प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा । आत्मौपम्येन | भूतानां दयां कुर्वीत मानवः ॥ जिसप्रकार तुम्हें अपने प्राण ialitime
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy