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________________ प्रथम अध्याय wwww कारण मिथ्यात्व कर्म बहुत थोड़ा रह गया है और इसलिये ही जो प्रमाणसे बाधित ऐसे कुधर्ममें तल्लीन होकर भी स्वर्ग मोक्षका कारण और प्रत्यक्षपरोक्ष आदि प्रमाणोंसे अबाधित ऐसे समीचीन धर्मसे (जैन धर्मसे) द्वेष नहीं करता है उसे भद्र कहते हैं । अपि शब्दसे यह भी सूचित होता है कि जो कुधर्म सद्धर्म दोनोंमें मध्यस्थ होकर भी जैन धर्मसे द्वेष नहीं करता है वह भी भद्र कहलाता है। ऐसे भद्रको समीचीन धर्ममें लानेके लिये उपदेश देना चाहिये क्योंकि बह द्रव्य सम्यग्दृष्टी है । आगामी कालमें सम्यक्त्व गुणके उत्पन्न होने की योग्यता रखता है । तथा जो अभद्र है अर्थात् कुधर्ममें तल्लीनं होता हुआ मिथ्यात्व कर्मके, प्रबल उदयसे सद्धर्मकी निंदा करती है ऐसे जीवको उपदेश देना 'व्यर्थ है, क्योंकि उसके आगामी कालमें भी सम्यक्त्व गुण प्रगट होनेकी योग्यता नहीं है। १-यहांपर अभद्र अर्थात् जिनमुखसे परान्मुखको उपदेश देनेकी मनाई लिखनेसे शास्त्रकारके हृदयकी संकीर्णता नहीं समझ लेना चाहिये, क्योंकि 'अभद्रोंको उपदेश नहीं ही देना' यह उनका अभिप्राय नहीं है किंतु उनका अभिप्राय यह है कि अभव्योंको दिया हुआ उपेदश व्यर्थ जाता है । जैसे कोरडू मूग हजार अमि देनेपर भी गल नहीं सकता इस लिये उसका पकाना व्यर्थ है इसी तरह अभद्र भी उपदेशों द्वारा कभी मोक्षमार्गके अनुकूल नहीं हो सकता इस लिये उसको उपदेश देना व्यर्थ ही है।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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