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________________ सागारधर्मामृत आगे-जो पुरुष वीतराग सर्वज्ञके उपदेशसे सुश्रूषा | आदि गुणों को धारण करता है वह यद्यपि सम्यक्त्व रहित हो तथापि व्यवहारमें वह सम्यक्त्वी जीवके समान ही जान पड़ता है, इसी बातको दृष्टांत देकर दिखलाते हैं-- शलाकयेवाप्तगिराप्तसूत्र प्रवेशमार्गो मणिवच्च यः स्यात् । हीनोपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वद् भूयादसौ सांव्यवहारिकाणाम् ॥१०॥ ___ अर्थ--जिस प्रकार एक मोती जो कि कांति रहित है उसमें भी यदि सलाईके द्वारा छिद्रकर सूत (डोरा) पिरोने । योग्य मार्ग कर दिया जाय और उसे कांतिवाले मोतियोंकी मालामें पिरो दिया जाय तो वह कांति रहित मोती भी कांतिवाले मोतियोंके साथ वैसा ही अर्थात् कांति सहित ही सुशोभित होता है। इसीप्रकार जो पुरुष सम्यग्दृष्टी नहीं है वह भी यदि सद्गुरुके वचनों के द्वारा अरंहतदेवके कहे हुये शास्त्रों में प्रवेश करनेका मार्ग प्राप्त करले अर्थात् शास्त्रोंके समझने योग्य सुश्रूषा आदि गुण प्रगट करले तो वह सम्यक्त्व रहित होकर भी सम्यग्दृष्टियोंमें नयोंके जाननेवाले व्यवहारी लोंगोको सम्यग्दृष्टीके समान ही सुशोभित होता है । यदि वह सम्यग्दृष्टी हो तो वह तो अत्यंत सुशोभित होती ही है यह अपि शब्दसे सूचित होता है । अभिप्राय यह है कि जो सम्यग्दृष्टी नहीं है परंतु शास्त्रोके सुनने आदिके लिये सुश्रूषा भादि गुणोंको धारण करनेवाला है उसे सम्यग्दृष्टिके समान ही गिनना चाहिये और उसीतरह उसका आदर सत्कार करना चाहिये ॥१०॥
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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