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________________ सागारधर्मामृत [१३ आगे--इस पंचमकालमें जैसे सदुपदेशक दुर्लभ हैं वैसे ही दर्शनमोहनीयकर्मके उदयसे जिनके चित्तपर परदा | पड़ा हुआ है ऐसे श्रोता लोग भी उपदेश सुननेके योग्य नहीं हैं इसलिये भद्र पुरुष ही उपदेश सुननेके योग्य हों ऐसी आशा करते हुये पंडितवर्य कहते हैं-- नाथामहेद्य भद्राणामप्यत्र किमु सदृशां । हेम्न्यलभ्ये हि हेमाश्मलाभाय स्पृहयेन्न कः ॥८॥ अर्थ--इस भरतक्षेत्रके आज इस पंचमकालमें हम भद्रपुरुषोंसे ही ऐसी आशा रखते हैं कि वे उपदेश सुनने के योग्य हों । जब हम भद्रपुरुषोंसे ही ऐसी आशा रखते हैं तब फिर सम्यग्दृष्टियोंसे तो कहना ही क्या है, उनसे तो भद्रपुरुषों से भी अधिक आशा रखते ही हैं। जिस समय सुवर्णका मिलना असंभव है उस समय यदि सुवर्ण पाषाण ही मिलजाय तो भला कौन पुरुष उसकी अभिलाषा नहीं करता ? अर्थात् सब ही करते हैं। भावार्थ-सम्यग्दृष्टी उपदेश सुननेके योग्य हों तो बहुत अच्छा है, यदि सम्यग्दृष्टी | न हों तो भद्रपुरुष ही इसके योग्य हों। ___ आगे भद्रका लक्षण कहकर वही उपदेश सुननेके योग्य है ऐसा दिखलाते हैं-- - कुधर्मस्थोपि सद्धर्म लघुकर्मतयाऽद्विषन् । भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ॥ ९ ॥ अर्थ-जिसका सद्धर्म अर्थात् जैनधर्मसे द्वेष करनेका
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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