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________________ (२६) सद्विद्यारसमुद्गिरन्तु कवयो नामाप्यघस्यास्तु मा प्रार्थं वा कियदेक एव शिवकृद्धर्मोजयत्वहताम् ॥ ३३ ॥ इत्याशाधराविरचिताभव्यात्महरदेवानुमताधर्मामृतयतिधर्मटीका समाप्ता॥ भावार्थ--मुझ आशाधरने यह अनगारधर्मामृतकी मुनियोंको प्यारी लगनेवाली और यतिधर्मका प्रकाश करनेवाली | स्वोपज्ञटीका बनाई । यदि इसमें कहींपर कुछ शब्द अर्थमें भूल हुई हो तो उसे मुनिजन पंडितजन संशोधन करके पढ़ें, क्योंकि मैं छद्मस्थ हूं । नलकच्छपुरमें ( नालछमें ) पापानामके एक सज्जन जैनी हैं, जो कि खंडेलवालवंशके हैं, नगरके अगुए हैं, जिनपूजा कृपादानादि करनेमें तत्पर हैं, विनयवान् हैं, पापसे पराङ्मुख हैं और श्रीमान् हैं । उनके दो पुत्र हैं एक बहुदेव और दूसरे पद्मसिंह । बहुदेवके तीन पुत्र हैं-हरदेव, उदय और स्तंभदेव (१)। धर्मामृत ग्रन्थके सागारभागकी टीका महीचन्द्र नामके साधुने बालबुद्धि जनोंके समझानेके लिये बनवाई और उसी धर्मामृतके अनगारभागकी टीका बनाने के लिये हरदेवने प्रार्थना की और धनचन्द्रने आग्रह किया। अतएव इन दोनोंकी प्रार्थना और आग्रहसे पण्डित आशाधरने यह टीका जिसका कि नाम भव्यकुमुदचन्द्रिका है कुशाग्रबुद्धिवालोंके लिये बनाई। -
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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