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________________ | ३०८ ] चौथा अध्याय चांवल जौ आदि सत्रह प्रकारके धान्य कहलाते हैं । किसीने कहा भी है-"चांवल, जौ, मसूर, गेहूं, मूग, उडद, तिल, चना, कोदो, मोठ, कांगनी, अण, शालि, आढकि, सण, मटर, कुलथी ये सत्रह धान्य कहलाते है । अपने घरके धनधान्य विकजानेपर अथवा किसीतरह खर्च हो जानेपर दूसरे धनधान्य खरीदूंगा ऐसी इच्छा करना अथधा किसीको खरीदनेका वचन देकर जबतक अपने सब धान्यादिक बिक न जावे अथवा खर्च न हो सकें तबतक उनको उसीके घरमें रखना दूसरा अतिचार है। उन धनधान्यादिकों को अपने घरमें न रखनेस व्रतका पालन और परिणामोंसे उनका बंधन करनेसे भंग इसप्रकार भंगाभंगरूप अतिचार होता है। परिग्रहपरिमाणाणुव्रती श्रावकको ऐसा अतिचार कभी नहीं लगाना चाहिये। कनकरूप्य-सुवर्णको कनक और चांदीको रूप्य कहते हैं । इन दोनोंके कृत्रिम अकृत्रिम आदि अनेक भेद होते हैं । किसी राजा आदिके प्रसन्न होनेपर अपने नियमसे भी अधिक द्रव्य आया हो तो उसको “ मेरे परिग्रहपरिमाणकी अवधि पूर्ण होनेपर वापिस लौटालंगा " ऐसे अभिप्रायसे किसीको देना वा धरोहर रखदेना तीसरा अतिचार है । उस सोने चांदीको घरमें न रखनेसे व्रतका पालन होता है और परिणामोंसे व्रतका भंग होता है इसप्रकार भंगाभंगरूप होनेसे अतिचार होता है । परिग्रहपरिमाणाणुव्रती श्रावकको इसप्रकार अपने परिमाणका अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । कुप्य-सोने चांदीके सिवाय लोहे, कांसे, तांबे, सीसे आदि धातुओंके पदार्थ, मिट्टीके बर्तन, वांसकी चीजें, लकडीके
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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