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________________ सागारधर्मामृत [ १४३ को भी सुख और पुण्य कहांसे मिल सकता है ! अभिप्राय यह है कि स्थापना करनेसे अपूज्य वस्तु भी पूज्य हो जाती है । जिसप्रकार प्रतिमामें अरहंतकी स्थापनाकर अरहंतकी पूजा आदि आरंभ करनेवाले गृहस्थोंका धन प्रत्येक कार्यमें चाहे जितना खर्च होता है जब उधर उसका लक्ष्य नहीं है तो दान देनेमें भी बहुतसा विचार नहीं करना चाहिये । यथायथा विशिष्यते तपोज्ञानादिभिर्गुणै: । तथा तथाधिकं पूज्या मुनयो गृहमेधिभिः || अर्थ - तप और ज्ञान आदि गुणोंके द्वारा मुनियोंकी योग्यता जैसी जैसी अधिक होती जाती है उसी तरह गृहस्थोंको उनकी अधिक अधिक पूजा करनी चाहिये । दैबाल्लब्धं धनं धन्यैर्वप्तव्यं समयाश्रिते । एको मुनिर्भवेल्लभ्यो न लभ्यो वा यथागमं ॥ अर्थ - पुण्यवान पुरुषोंको पूर्व पुण्यके उदयसे जो धन मिला है उसे अपने धर्मको पालन करनेवाले श्रावककोंके लिये यथायोग्य खर्च कर देना चाहिये । क्योंकि शास्त्रानुसार पूर्ण चारित्रको पालन करनेवाला कोई एक आदि मुनि मिले अथवा न भी मिले । उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनां । नैकस्मिन् पुरुषे तिष्ठेदेकस्तंभ इवालय : ॥ अर्थ - यह श्री जिनेंद्रदेवका कहा हुआ धर्म ऊंच नीच दोनों प्रकारके मनुष्यों से भरा हुआ है । जिसप्रकार एक खंबेके आधार पर घर नहीं ठहर सकता उसीप्रकार यह धर्म भी किसी एक ऊंच अथवा नीच मनुष्य के आधारपर नहीं रह सकता । ते नामस्थापनाद्रव्यभावन्यासैश्चतुर्विधाः । भवंति मुनयः सर्वे दानमानादिकर्मसु ॥ अर्थ - दान मान आदि क्रियाओंके करनेके लिये
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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