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________________ wwwwwwww MAAVAJYA १४२ ] दूसरा अध्याय विचार न करते हुये जिसातेसंतरह खर्च कर देते हैं तो उन्हें किसी धर्मात्मा भाईकी विपत्ति दूर करनेका समय आनेपर उ. सके अवगुण निकालकर अथवा गुणोंको ही अवगुण कहकर उसकी निंदा कभी नहीं करनी चाहिये ॥ १३ ॥ आगे-उसे क्या करना चाहिये सो कहते हैं विन्यस्यैदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव । भक्त्या पूर्वमुनीनचेत्कुतः श्रेयोऽतिचर्चिनां ॥६४॥ अर्थ--जिसप्रकार रत्न पाषाण आदिकी प्रतिमाओंमें ऋषभदेव आदि जिनेंद्रदेवकी स्थापनाकर उनकी पूजा करते हैं उसीप्रकार सद्गृहस्थको इस पंचमकालमें होनेवाले मुनियोंमें नाम स्थापना आदि विधिसे पूर्वकालके मुनियोंकी स्थापनाकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । क्योंकि अतिशय पीसनेवालेको अर्थात् सबजगह परीक्षा करनेवाले १-इसविषयमें सोमदेव आचार्यने इसप्रकार लिखा है भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनां । ते संसः संत्वसंतो वा गृही दानेन शुध्यति ॥ अर्थ-केवल आहारदान देनेके लिये मुनियोंकी क्या परीक्षा करना चाहिये ? अर्थात् कुछ नहीं । वे मुनि चाहे अच्छे हों या बुरे हों गृहस्थ तो उन्हें दान देनेसे शुद्ध ही हो जाता है अर्थात् गृहस्थको पुण्य ही होता है। ___सर्वारंभप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनव्ययः । बहुधास्ति ततोऽत्यर्थ न कर्तव्या विचारणा ॥ अर्थ-इस संसारमें सब प्रकारके खेती व्यापार
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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