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________________ १४४] दूसरा अध्याय करते हैं उसीप्रकार आजकलके मुनियोंमें पहिलेके मुनियोंकी स्थापना कर उन पहिलेके मुनियोंकी ही पूजा करनी चाहिये। स्थापना मात्र करने के लिये विशेष परीक्षाकी आवश्यकता नहीं है ॥ ६ ॥ आगे--फिर भी ऊपर लिखे हुये विषयको ही समर्थन करते हुये कहते हैं-- अर्थात् दान आदि देनेके लिये वे सब मुनि नाम स्थापना द्रव्य भाव इन निक्षेपोंसे चारप्रकारके होते हैं । भावार्थ-चारों प्रकारके मुनि पूज्य दान देनेयोग्य और सत्कार करनेयोग्य हैं। परंतु इतना विशेष है कि उत्तरोत्तरभावेन विधिस्तेषु विशिष्यते । पुण्यार्जने गृहस्थानां जिनप्रतिकृतिष्विव ॥ अर्थ-जिसप्रकार जिनेंद्रदेवकी प्रतिमा और साक्षात् जिनेंद्रदेव इन दोनोंकी पूजामें प्राप्त होनेवाले पुण्यमें विशेषता है उसीप्रकार उन मुनियोंमें उत्तरोत्तर अर्थात् नाममुनिकी अपेक्षा स्थापनामुनि, स्थापनासे द्रव्य और द्रव्यनिक्षपसे भावनिक्षपद्वारा पूजा करनेसे गृहस्थोंके पुण्योपार्जनमें भी विशेषता होती है अर्थात् उत्तरोत्तर निक्षेपद्वारा पूजा करनेसे आधिक अधिक पुण्योपार्जन होता है। काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके। एतचित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ॥ अर्थ-इस कलिकालमें चित्त सदा चलायमान रहता है शरीर एक तरहसे केवल अन्नका कीडा ही बन रहा है ऐसी अवस्थामें भी वर्तमानमें जिनरूप धारण करनेवाले (मुनि) विद्यमान है यही आश्चर्य है। ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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