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________________ ११४] दूसरा अध्याय जिनके रहनेका कोई एकांत स्थान नहीं है ऐसे बनमें रहनेवाले मुनियोंका चित्त भी थोडे बहुत राग द्वेषके विकाररूप परिणामोंसे बार बार चंचल होता हुआ अर्थात् इधर उधर भटकता हुआ सामायिक आदि अवश्य करनेयोग्य धर्मक्रियाओंमें उत्साह नहीं करता है । आभिप्राय यह है कि आजकल चित्तकी स्थिरता इतनी नहीं है कि जिससे मुनि बनमें रह सकें। इसलिये विना वसातकाके उनका चित्त स्थिर नहीं रह सकता और फिर न उनसे धक्रियायें ही बन सकती हैं इसलिये मुनियों के लिये वसतिकायें अवश्य बनवानी चाहिये ॥ ३८ ॥ __आगे-स्वाध्यायशालाके विना बडे बडे पंडितोंका शास्त्रोंका मर्मरूप तत्त्वज्ञान स्थिर नहीं रह सकता ऐसा दिखलाते हैं विनेयवद्विनेतृगामपि स्वाध्यायशालया । विना विमर्शशून्या धीईष्टेऽप्यंधायतेऽध्वनि ॥ ३९ ॥ , अर्थ--पाठशाला और स्वाध्यायशालाके विना जिस प्रकार शिष्योंकी बुद्धि तत्त्वोंको नहीं जान सकती उसीप्रकार विना पाठशालाके अथवा स्वाध्यायशालाके बड़े बड़े पंडितोंकी बुद्धि समस्त शास्त्रोंका अभ्यास करनेपर भी निरंतर तत्त्व. विचार करने के विना शास्त्रोंमें अथवा मोक्षमार्गरूप कल्याणमामें अंधी हो जाती है, अर्थात् तत्त्वोंको नहीं जान सकती, अथवा जानेहुये तत्त्वोंको भूल जाती है। भावार्थ-पाठशाला
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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