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________________ ArvvvvNAAnm/vvvvvvvvv सागारधर्मामृत [ १६५ और स्वाध्यायशालाके विना पंडित और उपाध्याय लोगोंका अभ्यास भी छूट जाता है तथा विना अभ्यासके वे पढा हुआ भी भूल जाते हैं और तत्त्वविचारमें अंध हो जाते हैं इसलिये धर्मकी रक्षाका मुख्य उपाय पाठशाला वा स्वाध्यायशाला | स्थापन करना है। तात्पर्य यह है कि धनाढ्य पुरुषोंको जिनबिंब, जिन1 मंदिर, वसतिका और स्वाध्यायशाला अवश्य बनवाना चाहिये, इस कालमें ये ही कल्याण करनेवाले हैं तथा ये ही धर्माद्धके मुख्य कारण हैं ॥ ३९॥ आगे-कृपा करने योग्य प्राणियोंपर कृपाकरके अन्नक्षेत्र और औषधालय भी खोलना चाहिये तथा अनेक आरंभ करनेवाले गृहस्थोंको जिनपूजाके लिये पुष्पवाटिका (बगीची) वगैरह बनानेमें भी कोई दोष नहीं हैं, ऐसा दिखलाते हुये कहते हैं सत्रमप्यनुकंप्यानां सृजेदनुजिघृक्षया। चिकित्साशालवदुष्यन्नेज्यायै वाटिकाद्यपि ॥८॥ अर्थ-जिन जीवोंपर अवश्य कृपा करनी चाहिये अर्थात् | | जो अवश्य कृपा करनेके पात्र हैं भूख प्यास और राग आदिसे दुखी हैं उनके उपकार करनेकी इच्छासे पाक्षिक श्रावकों को औषधालय खोलना चाहिये और उसीतरह सदावर्तशाला (अन्नक्षेत्र, जहांसे नित्य अन्न दियाजाता हो) और प्याऊ (पानी
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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