SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wwwwwwwww सागारधर्मामृत [११३ आदि पुण्यकार्योंके समुदायमें जो स्वेच्छापूर्वक मनबचनकायकी शुभ प्रवृत्ति अर्थात् पुण्य बढानेवाली प्रवृत्ति होती है और | उस शुभ प्रवृत्तिसे जो धर्मका उत्सव स्फुरायमान होता है तथा उस धर्मके उत्सवसे बहुतदेर तक ठहरनेवाला जो एक प्रकारका हर्ष प्रगट होता है उस हर्षरूपी जलके प्रवाहसे जिनको समस्त पापरूपी धूल नष्ट हो गई है ऐसे किसप्रकार हो सकते हैं ? भावार्थ- जहां जिन मंदिर होता है वहांके गृहस्थ पूजा अभिषेक आदि धर्मकार्य करके सदा धर्मोत्सव करते रहते हैं जिससे उनके पुण्यका बंध होता रहता है और अशुभ कर्म नष्ट होते रहते हैं । परंतु जहां जिनमंदिर नहीं है वहांके गृहस्थ इस धर्मकार्यसे वंचित रहते हैं, इसलिये वहां न तो धर्मका उद्योत होता है और न वे गृहस्थ पुण्यबंध कर सकते हैं न अशुभ कर्म नष्ट कर सकते हैं । इसलिये धर्मकी स्थितिमें जिनमंदिर ही मुख्य कारण है ॥ ३७॥ आगे-इस कलिकालमें वसतिकाके विना सज्जन मुनियोंका चित्त भी स्थिर नहीं रह सकता है इसलिये उसकी आवश्यकता दिखलाते हैं मनो मठकठेराणां वात्ययेवानवस्थया । चेक्षिप्यमाणं नाद्यत्वे क्रमते धर्मकर्मसु ॥ ३८ ॥ अर्थ-जिसप्रकार वायुके समुहसे रुई इधर उधर उडती फिरती है उसीप्रकार इस कलिकालमें मठसे दरिद्र अर्थात्
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy