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________________ १९२] दूसरा अध्याय | देनेका भी कारण यह है कि इस कालमें जिनके शास्त्ररूपी नेत्र है ऐसे विद्वान लोगोंकी बुद्धि अर्थात् अंतःकरणकी प्रवृत्ति भी प्रायः जिनप्रतिमाके दर्शन किये विना जिनभक्ति करनेमें अर्थात् उन्हींको एकमात्र शरण मानकर पूजा सेवा करनेमें प्रवृत्त नहीं होती ? । प्रायः शब्दसे यह अभिप्राय है कि कोई कोई ज्ञान और वैराग्यभावनामें तत्पर भव्यजीव प्रतिमादर्शनके विना भी परमात्माके आराधन करनेमें लीन हो जाते हैं और अन्यलोग प्रतिमाके दर्शन करनेसे ही परमात्माका आराधन कर सकते है ।। ३६ ॥ आगे--इस कलिकालमें जिनधर्मकी स्थिति अच्छे अच्छे जिनमंदिरोंके आधारपर ही है ऐसा कहते हैं प्रतिष्ठायात्रादिव्यतिकरशुभस्वैरचरण- .. स्फुरद्धर्मोद्धर्ष प्रसररसपूरास्तरजसः । कथं स्युः सागाराः श्रमणगणधर्माश्रमपदं न यत्राईद्हं दलितकलिलीलाविलसितं ।। ३७ ॥ अर्थ--जिसके निमित्तसे कलिकालमें होनेवाले दुष्ट लीलाके विलास अर्थात् दुष्टनीति अथवा विना किसी रोक टोकके बढनेवाले संक्लेश परिणाम नष्ट हो जाते हैं और जो मुनियोंको धर्मसेवन करनेके लिये निवासस्थान है ऐसा जिनमंदिर जिस नगर वा गांवमें नहीं है उस जगह निवास करनेवाले गृहस्थ प्रतिष्ठा, यात्रा, पूजा, अभिषेक, रथोत्सव, जागरण
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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