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________________ NAVVVVVVVVVVVVVVVVV सागारधर्मामृत [ १०९ दूषित हो रहा है ऐसे भक्तपुरुषको अपने अपने दोषके अनुसार कंठपर्यंत अथवा शिरपर्यंत स्नानकर पवित्र होकर स्वयं श्री जिनेंद्रदेवके चरणकमलोंकी पूजा करनी चाहिये। यदि कारणवश वह स्नान न कर सके तो उस भक्त गृहस्थको किसी अपने साथीको, साथ पढनेवालको अथवा किसी सहधर्मीको (जैनीको) स्नानकराकर उससे पूजा करानी चाहिये । अभिप्राय यह है कि गृहस्थको विना स्नान किये पूजा करने का अधिकार नहीं है॥३४॥ भागे-जिनप्रतिमा और जिनमदिर आदिके बनाने में विशेष फल होता है ऐसा कहते हुये उनके बनानेका समर्थन करते हैं निर्माप्यं जिनचैत्यतद्गृहमठस्वाध्यायशालादिकं श्रद्धाशक्त्यनुरूपमस्ति महते धर्मानुबंधाय यत् । हिंसौरंभाविवर्तिनां हि गृहिणां तत्ताहगालंबनप्रागल्भीलसदाभिमानिकरसं स्यात्पुण्यचिन्मानसं ॥३५॥ अर्थ-पाक्षिक श्रावकको अपनी श्रद्धा और सामर्थ्यके अनुसार जिनबिंक, जिनमंदिर, मठ, पाठशाला, स्वाध्यायशाला आदि धर्मायतन (धर्मके स्थान ) 'बनबाने चाहिये ! १-इससे यह भी सिद्ध होता है कि स्नान करनेसे और मनके संताप पसीना तंद्रा आलस्य और खेद आदि दोष सब दूर हो जाते हैं तथा शरीर और मन शुद्ध हो जाता है। दतौन करनेसे मुह शुद्ध हो जाता है। २-यद्यप्यारंभतो हिंसा हिंसायाः पापसंभवः । तथाप्या कृतारंभो महत्पुण्यं समश्नुते ॥ अर्थ-यद्यपि आरंभ करनेसे हिंसा होती है
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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