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________________ १०८ ] दूसरा अध्याय शरीर और मनमें संताप हो रहा है जिसका शरीर और मन पसीना, तंद्रा आलस्य और मनकी चंचलता आदि दोषोंसे आदि आरंभकर्म छोड दिये हैं उन्हें इन पांचोंमेंसे इच्छानुसार कोई भी स्नान कर लेना चाहिये परंतु जो गृहस्य हैं, खेती व्यापार आदि आरंभकर्म करते हैं उन्हें कंठतक अथवा शिरपर्यंत ये दो ही स्नान करना चाहिये । ___सर्वारंभविज़ंभस्य ब्रह्मजिह्मस्य देहिनः । अविधाय बहिःशुद्धिं नाप्तोपास्त्यधिकारिता ॥ अर्थ-जो खेती आदि सबतरहके आरंभ करता हैं और जो स्त्री सहित गृहस्थ है उसका अतरंग शुद्ध होनेपर भी बाह्य शुद्धि अर्थात् स्नान आदिके विना उसे जिनपूजा करनेका अधिकार नहीं है। - आप्लुतः संप्लुतश्चांतः शुचिवासोविभूषितः। मौनसंयमसंपन्नः कुर्याद्देवार्चनाविधिं ॥ अर्थ-प्रथम ही शुद्ध जलसे स्नान करना चाहिये फिर मंत्रपूर्वक आचमन आदिसे अंतःकरणकी शुद्धि करनी चाहिये और फिर शुद्ध वस्त्रोंसे सुशोभित होकर मौन और संयम धारण कर भव्य पुरुषको विधिपूर्वक देवपूजा करनी चाहिये। दंतधावनशुद्धास्यो मुखवासोवृताननः । असंजातान्यसंसर्गः सुधीदेवानुपाचरेत् ॥ अर्थ-प्रथम ही शौचादिकसे आकर हाथ.पैर धोकर दतौन (नीम बबूल आदिकी १२ अंगुल लंबी छोटी उगलीके समान मोटी लकडीसे) करना चाहिये, फिर मुखशुद्धि (कुरले ) कर स्नान करना चाहिये, फिर डुपट्टेसे मुख ढककर अपवित्र मनुष्य अथवा अपवित्र पदार्थके स्पर्शसे बचते हुये विद्वान् पुरुषको अरहंतदेवकी पूजा करनी चाहिये।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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