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________________ सागरिधर्मामृत तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुं । मद्यमांसमधुन्युज्झत्पंचक्षीरफलानि च ॥२॥ ___ अर्थ-जो जीव गृहस्थधर्ममें रहकर प्रथम ही श्री जीनेंद्रदेवकी आज्ञापर श्रद्धान करता है अर्थात् जिनेंद्रदेवके कहे हुये शास्त्रोंको प्रमाण मानता है और जो देशसंयम धारण करना चाहता है ऐसे गृहस्थको मद्य आदि विषयोंके सेवन करनेसे उनमें राग करनेरूप जो भावहिंसा होती है और उन मद्य आदिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका विनाश हो जानेसे जो द्रव्यहिंसा होती है इन दोनों तरह की हिंसाका त्याग करने के लिये १ मद्य मांस मधुका और पीपल आदि पांचप्रकारके ' क्षीरवृक्षके फलोंका अवश्य त्याग करना चाहिये । इन्हीं आठ वस्तुओंके त्याग करनेको आठ मूलगुण कहते हैं । श्लोकमें दिये हुये 'च' शब्दका यह अभिप्राय है कि ऊपर लिखी हुई मद्यमांस आदि आठ चीजोंके साथ साथ उसे नवनीत (लौनी वा मक्खन ), रात्रिको भोजन और विना छना हुआ पानी इत्यादि चीजोंका १-मांसाशिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । आनृशंस्यं न मत्र्येषु मधूदुंबरसेविषु ॥ अर्थ-मांस लानेवाले हमाराबहीं होती, मद्यपान करनेवाले सत्यभाषण नहीं कर सकते और मधु तथा उदंवर खानेवाले जीव घातक अथवा मिलते हैं। " २-जिन वृक्षोंके तोडनेसे दूध निकलता है ऐसे बड गूलर पीपल आदि वृक्षोंको क्षीरवृक्ष अलवा छिदंबर कहते हैं। -
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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