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________________ ५६ ] दूसरा अध्याय लेकी अपेक्षा बहुत अच्छा है ' इसप्रकार करते हुये आचार्यने स्थावर जीवोंके घात करनेकी सम्मति दी यह कभी सिद्ध नहीं होता क्योंकि ऊपर जो लिखा है कि "जो गृहस्थ हिंसादि पापोंको पूर्ण रीतिसे नहीं छोड़ सकता और तब वह एकदेश उनके त्याग करनेकी प्रतिज्ञा करता है उससमय आचार्य उसे स्वीकार करते है" उसका अभियाय यह है कि आचार्य प्रथम ही सर्व त्याग करनेका उपदेश देते हैं । यदि वह उसमें असमर्थ होता है और आचार्यसे निवेदन करता है कि महाराज ! मुझसे सर्वत्याग न हो सकेगा, मैं एकदेशका त्याग करता हूं तब आचार्य "अच्छा" ऐसी सम्मति देते हैं, अथवा सर्वत्यागमें असमर्थ देखकर एकदेशका त्याग कराते हैं। भावार्थ-यह है कि आचार्यने त्याग करनेकी सम्मति दी है गृहस्थके धर्म धारण करनेकी नहीं। इसलिये वे गृहस्थसे होनेवाले स्थावर जीवोंके घातमें सहमत भी नहीं हैं, अतएव उसमें सम्मति देनेका दोष भी उनपर नहीं लग सकता ॥१॥ ____ आगे-शुद्ध सम्यग्दृष्टी पाक्षिक श्रावकसे अहिंसा पालन करनेकेलिये मद्य आदिका त्याग कराते हैं । अथवा श्रावकके आठ मूलगुण कहते हैं| २- सर्वविनाशी जीवस्त्रसहनने त्यज्यते यतो जैनेः । .. स्थावरहननानुमतिस्ततः कृता तैः कथं भवति ॥१॥ अर्थ-जब आचार्यने सबतरहकी हिंसा करनेवाले जीवसे त्रस जीवोंके घात करनेका त्याग कराया है तब उससे यह कैसे सिद्ध हो सकता है कि उन्होंने स्थावर जीवोंकी हिंसा करनेमें अपनी सम्मति दी ? अर्थात् कभी नहीं।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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