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लाटीसंहिताके वाद प्रारंभ हुआ है । परंतु पंचाध्यायीका प्रारंभ पहले हुआ हो या पीछे, इसमें संदेह नहीं कि वह लाटीसंहिताके बाद प्रकाशमें आई है और उस वक्त जनता के सामने रखी गई है जब कि कविमहोदयकी इहलोकयात्रा प्रायः समाप्त हो चुकी थी । यही वजह है कि उसमें किसी सन्धि, अध्याय, प्रकरणादिक या ग्रंथकर्ताके नामादिक की कोई योजना नहीं होसकी और वह निर्माणाधीन स्थितिमें ही जनताको उपलब्ध हुई है । मालूम नहीं ग्रंथकर्ता महोदय इसमें और किन किन विषयोंका किस हद तक समावेश करना चाहते थे और उन्होंने अपने इस ग्रंथराजके पाँच महाविभागों-अध्यायों के क्या नाम सोचे-थे । निसंदेह ऐसे ग्रंथरत्नका पूरा न हो सकना समाजका बडा ही दुर्भाग्य है। ___ कवि राजमल्लने लाटीसंहिताकी रचना 'वैराट । नगरके जिनालयमें बैठकर की है । यह वैराट नगर वही जान पडता है जिसे 'वैराट' भी कहते है और जो जयपुरसे करीब ४० मीलके फासले पर है। किसी समय यह विराट अथवा मत्स्यदेशकी राजधानी थी और यहीं पर पांडवोंका गुप्त वेशमें रहना कहा जाता है । 'भीमकी दूंगरी' आदि कुछ स्थानोंको लोग अब भी उसी वक्त के वतलाते हैं । लाटीसंहितामें कविने इस नगरकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हुए, अपने समयका कितना ही वर्णन दिया है और उससे मालूम होता है कि यह नगर उस समय बड़ा ही समृद्धशाली था। यहां कोई दरिद्री नजर नहीं आता था, प्रजामें परस्पर असूया अथवा ईर्षीद्वेषादिके वशवर्ती होकर छिद्रान्वेषणका भाव नहीं था, वह परचक्रके भयसे रहित थी, सबलोग खुशहाल तथा धर्मात्मा थे, चोरी वगैरहके अपराध नहीं होते थे और इससे नगरके लोग दंडका नाम भी नहीं जानते थे। अकबर बादशाहका उस समय राज्य . १ लाटीसंहितामें भी पांडवोंके इन परंपरागत चिन्होंके अस्तित्वको सूचित किया है । यथा-- ...कीडाद्रि श्रृगेषुच पांडवानामद्यापि चाश्चर्यपरपरांकाः।।
या काश्यदालोक्य बलावलिसाद विमुंचन्ति महाबला अपि ॥ ४७ ॥