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(१८) गई है, जिसका स्पष्ट उल्लेख संहिताके ‘कथामुखवर्णन' नामके प्रथम सर्गमें पाया जाता है । फामनको संहितामें जगह जगह आशीर्वाद भी दिया गया है । उक्त पदसे ठीक पहले भी, चतुर्थसर्गका प्रारम्भ करते हुए आशीर्वादका एक पद पाया जाता है और वह इस प्रकार है:
इदमिदं तव भो वनिजांपते भवतु भावितभान सुदर्शनं । विदितफामननाममहामते रसिकधर्मकथासु यथार्थतः ॥ १॥
इससे साफ जाना जाता है कि इस पद्यमें जिस व्यक्ति विशेषके सम्बोधन करके आशीर्वाद दिया गया है वही अगले पदका प्रश्नकर्ता
और उसमें प्रयुक्त हुए ‘नः । पदका वाच्य है । लाटी संहितामें प्रश्नकर्ता फामनके लिये 'नः' पदका प्रयोग किया गया है, यह बात नीचे लिखे पद्यसे और भी स्पष्ट हो जाती है:
सामान्यादवगम्य धर्म फलितं ज्ञातुं विशेषादपि । भक्त्या यस्तमपीपृछद् वृषरुचिर्नाम्नाधुना फामनः ॥ धर्मत्वं किमथास्य हेतुरथ किं साक्षात्फलं तत्वतः । स्वामित्त्वं किमथेति सूरिरवदत्सर्वं प्रणन्नः कविः।।७७।।मु०७८॥
ऐसी हालतमें नहीं कहा जा सकता कि उक्त पद्य नं० ४७७ पंचाध्यायीसे उठाकर लाटीसहितामें रक्खा गया है बल्कि लाटीसंहितासे उठाकर वह पंचाध्यायीमें रक्खा हुआ जानपड़ता है । साथ ही, यह भी मालूम होता है कि उक्त पद्यके उस वाक्य-खण्डमें समुचित परिवर्तनका होना या तो छूट गया और या ग्रंथके अभी निर्माणाधीन होनेके कारण उस वक्त उसकी जरूरत ही नहीं समझी गई और इसलिये पंचाध्यायी का प्रारंभ यदि पहले हुआ हो तो यह कहना चाहिये कि उसकी रचना प्रायः उसी हद तक हो पाई थी जहाँसे आगे लाटीसंहितामें पाये जाने वाले समान पद्योंका उसमें प्रारंभ होता है। अन्यथा, लाटीसंहिताके कथनसंबंधादिको देखते हुए, यह मानना ही ज्यादा अच्छा और अधिक संभावित जान पड़ता है कि पंचाध्यायीका लिखा जाना