________________
(१५)
अत्रान्तरंगहेतुर्यद्यपि भावः कवेर्विशुद्धतरः। - हेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धिः ॥ ५ ॥ तत्राधिजीवमाख्यानं विदधाति यथाधुना। कविः पूर्वापरायत्त पर्यालोचविचक्षणः ।। उ०, १६० ।। उक्तो धर्मस्वरूपोपि प्रसङ्गात्संगतोंशतः । कविर्लब्धावकाशस्तं विस्तराद्वा करिष्यति ॥ ७७५ ॥ लाटीसंहितामें भी ग्रन्थकार अपनेको ‘कवि ' नामसे नामाङ्कित करते और 'कवि' लिखते हैं । जैसा कि ऊपर उद्धृत किए हुए पद्य नं. ६ नं०७७५ (यह पद्य लाटीसंहिताके चतुर्थ सर्गमें नं० २७० पर दर्ज हैं)
और नीचे लिखे पद्योंपरसे प्रकट है:......,तत्रस्थितः किल करोति कविः कवित्वं ।
तद्वद्धतां मयि गुणं जिनशासनं च ।। १-८६ ।। मु० ८७ ॥ प्रोक्तं सूत्रानुसारेण यथाणुव्रतपञ्चकं ।
गुणवतत्रयं वक्तुमुत्सहेदधुना कविः ॥ ६-११७ ॥१०१०९॥ इसी तरह और भी कितने ही स्थानोंपर आपका 'कवि' नामसे उल्लेख पाया जाता है, कहीं कहीं असली नामके साथ कवि-विशेषण जुड़ा हुआ भी मिलता है यथा, 'सानन्दमास्ते कविराजमल्लः' (५६)-और इन सब उल्लेखोंसे यह जाना जाता है कि लाटीसंहिताके कर्ताकी कवि रूपसे बहुत प्रसिद्धि थी, 'कवि' उनका उपनाम अथवा पदविशेष था और वे अकेले ( एकमात्र ) उसीके उल्लेख द्वारा भी अपना नामोल्लेख किया करते थे । इसीसे पञ्चाध्यायीमें जो अभी पूरी नहीं हो पाई थी, अकेले 'कवि' नामसे ही आपका नामोल्लेख मिलता है । नामकी इस समानतासे भी दोनों ग्रन्थ एक ही कविकी दो कृतियां मालूम होते हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि कविराजमल्ल एक बड़े विद्वान् और सत्कवि हो गये हैं । कविके लिये जो यह कहा गया है कि 'वह नये नये संदर्भ,
१ कपिनूतनसंदर्भः।