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________________ (१४) ज्ञानानन्दात्मानं नमामि तीर्थंकर महावीरम् । यश्चिति विश्वमशेष व्यदीपि नक्षत्रमेकमिव नभसि ॥ १॥ नमामि शेषानपि तीर्थनायकाननन्तबोधादिचतुष्टयात्मनः । स्मृतं यदीयं किल नाम भेषजं भवेद्धि विघ्नौघगदोपशान्तये ॥२॥ प्रदुष्टकर्माष्टकविप्रमुक्तकांस्तदत्यये चाष्टगुणान्वितानिह । समाश्रये सिद्धगणानपि स्फुटं सिद्धेः पथस्तत्पदमिच्छतां नृणां ॥३॥ त्रयीं नमस्यां जिनलिंगधारिणां सतां मुनीनामुभयोपयोगिनां । पदत्रयं धारयतां विशेषसात्पदं मुनेरद्वितयादिहार्थतः ॥ ४ ॥ जयन्ति जैनाः कवयश्च तगिरः प्रवर्तिता यैर्वृषमार्गदेशना । विनिर्जितं जाड्यमिहासुधारिणां तमस्तमोरेरिवरश्मिभिर्महत् ॥५॥ इतीव सन्मङ्गलसत्कियां दधन्नधीयमानोन्वयसात्परंपराम् । उपज्ञलाटीमिति संहितां कविश्चिकीर्षति श्रावकसव्रतस्थितिम् ॥६॥ इस मङ्गलपयोंको पञ्चाध्यायीके उक्त मङ्गलपद्योंके साथ, मूल प्रतिपाद्य विषयकी दृष्टिसे कितनी अधिक समानता है इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं । दोनों ग्रन्थोंके मङ्गलाचरणोंके स्तुतिपात्र ही एक नहीं बल्कि उनका क्रम भी एक है । साथ ही, 'महावीर', 'शेषानपि तीर्थकरान्', 'शेषानपि तीर्थनायकान् ।, 'अनन्तसिद्धान्', 'सिद्धगणान्', 'जीयात् '-'जयंति', 'इति', 'कृतमङ्गलसक्रियः ।'सन्मङ्गलसत्क्रियां दधन् ', 'चिकीर्षित', 'चिकीर्षति , ये पद भी उक्त समानताको और ज्यादा समुद्योतित कर रहे हैं । इसी तरह पञ्चाध्यायीका 'आत्मवशात् ' रचा जाना और लाटी संहिताका 'उपज्ञा' (स्वोपज्ञा) होना भी दोनों एक ही आशयको सूचित करते हैं। अस्तु, मङ्गल पद्योंकी इस स्थितिसे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि दोनों ग्रन्थ एक ही विद्वानके रचे हुए हैं । . इसके सिवाय, पञ्चाध्यायीमें ग्रन्थकारने अपनेको 'कवि' नामसे उल्लेखित किया है, अर्थात् 'कवि ' लिखा है । यथाः
SR No.022354
Book TitleLati Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
PublisherManikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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