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________________ (१३) शोभतेऽतीव संस्कारात्साक्षादाकरजो मणिः । संस्कृतानि व्रतान्येव निर्जराहेतवस्तथा ॥ १०॥ सप्तमसर्ग । सारी लाटीसंहिता इसी प्रकारके ऊहापोहात्मक पद्योंसे भरी हुई है। यहां विस्तारभयसे सिर्फ थोड़े ही पद्य उद्धृत किए गये हैं। इन पयोंपरसे विज्ञ पाठक लाटी संहिताकी कथनशैली और उसके साहित्य आदिका अच्छा अनुभव प्राप्त करनेके लिये बहुत कुछ समर्थ हो सकते हैं; और पश्चाध्यायीके साथ तुलना करनेपर उन्हें यह मालूम हो सकता है कि .. दोनों ग्रन्थ एक ही लेखनीसे निकले हुए हैं और उनका टाइप भी एक है। पश्चाध्यायीके शुरूमें मंगलाचरण और ग्रन्थ करनेकी प्रतिज्ञारूपसे जो चार पद्य दिये हैं वे इस प्रकार हैं: पंचाध्यायावयवं मम कर्तुम्रन्थराजमात्मवशात् । अर्थालोकनिदानं यस्य वचस्तं स्तुवे महावीरम् ॥ १॥ शेषानपि तीर्थकराननन्तसिद्धानहं नमामि समम् । धर्माचार्याध्यापकसाधुविशिष्टान्मुनीश्वरान्वन्दे ॥२॥ जीयाज्जैनं शासनमनादिनिधनं सुवन्द्यमनवद्यम् । यदपि च कुमतारातीनदयं धूमध्वजोपमं दहति ॥ ३ ॥ इति वन्दितपञ्चगुरुः कृतमङ्गलसक्रियः स एष पुनः । नाम्ना पञ्चाध्यायी प्रतिजानीते चिकीर्षितं शास्त्रम् ॥४॥ इन पद्योंमें क्रमशः महावीर तीर्थकर, शेष तीर्थकर, अनन्तसिद्ध और आचार्य, उपाध्याय तथा साधुपदसे विशिष्ट मुनीश्वरोंकी वन्दना करके जैन शासनका जयघोष किया गया है । और फिर अपनी इस वन्दना क्रियाको 'मङ्गलसत्क्रियाबतलाते हुए ग्रन्थका नामोल्लेख पूर्वक उसके रचनेकी प्रतिज्ञा की गई है । ये ही सब बातें इसी क्रम तथा आशय-. को लिए हुए, शब्दों अथवा विशेषणादि पदोंके कुछ हेर फेर या कमी बेशीके साथ लाटीसंहिताके शुरूमें भी पाई जाती हैं । यथा
SR No.022354
Book TitleLati Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
PublisherManikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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