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________________ 364 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन तथा चार संज्वलनों में से किसी एक देशघाती प्रकृति का उदय होने पर नव नोकषायों का यथासम्भव उदय होने पर उत्पन्न आत्म-परिणाम क्षायोपशमिकचारित्र कहलाता है।" अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायों के उदयाभावी क्षय और सदवस्था रूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय और संज्वलन कषाय के देशघाती स्पर्द्धकों का उदय होने पर तथा नौ नोकषायों का यथासम्भव उदय होने पर आत्मा का जो विस्ताविरत रूप परिणाम होता है वह संयमासंयमचारित्र कहलाता है।" औदयिक भाव __कर्मों के विपाक द्वारा जो अनुभव किया जाता है वह उदय है और इसी उदय से जन्य आत्म-परिणाम औदयिक भाव कहलाता है। ... यः कर्मणा विपाकेनानुभवः सोदयो भवेत् । स एवौदयिको भावो निवृत्तस्तेन वा तथा।।" मैल के जल में मिल जाने पर मलिनजल के समान यह भाव एक आत्मिक कालुष्य है। बद्धकों के उदय से ही यह भाव उत्पन्न होता है। __ औदयिक भाव जीव-अजीव दोनों को होता है। जीवों को गति, लिंग, वेद, शरीर आदि की प्राप्ति औदयिक भाव है। गति, शरीर, लिंगादि पौद्गलिक हैं जो कर्मोदय से जीव के साथ होते हैं। यथा मनुष्य गति वाले जीव को औदारिक शरीर की प्राप्ति, देवगति वाले जीव को वैक्रिय शरीर की प्राप्ति होना आदि। अतः इस अपेक्षा से अजीव में भी औदयिक भाव माना गया है। औदयिक भाव के 21 प्रकार- औदयिक भाव के २१ प्रकार स्वीकार किये जाते हैं अथाज्ञानमसिद्धत्वमसंयम इमे त्रयः । लेश्याषट्कं कषायाणां गतीनां च चतुष्टयं ।। वेदास्त्रयोऽथ मिथ्यात्वं भावा इत्येकविंशतिः । कर्मणामुदयाज्जातास्तत औदयिकाः स्मृताः ।।" अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, छह लेश्या, चार कषाय, चार गति, तीन वेद और एक मिथ्यात्व कुल १+१+१+६+४+४+३+१=२१ प्रकार के औदयिक भाव जीव को प्राप्त होते हैं। क्र. औदयिक भाव अज्ञान कर्म से सम्बद्ध मतिज्ञानावरण (श्रुतज्ञानावरण अथवा अवधिज्ञानावरण) और मिथ्यात्व मोह के उदय से जन्य भाव। आठ कमों के उदय से जन्य भाव। असिद्धत्व
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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