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________________ 363 भावलोक अवधिदर्शनावरण। दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन एवं अवधिदर्शन ये तीन भेद प्रकट होते हैं। मोहनीय कर्म के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क चारित्र मोहनीय ऐसे दर्शन सप्तक के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व प्रकट होता है। मोहनीय कर्म के चारित्र मोहनीय के कषाय एवं नोकषाय २५ ही भेदों के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक चारित्र प्रकट होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय मोहनीय के क्षयोपशम से संयमासंयम अथवा देशविरति भाव प्रकट होता है। दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय एवं वीर्यान्तराय इन पाँच अन्तराय कर्मों के क्षयोपशम से क्रमशः क्षायोपशमिक दान, क्षायोपशमिक लाभ, क्षायोपशमिक भोग, क्षायोपशमिक उपभोग एवं क्षायोपशमिक वीर्य प्रकट होता है। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपादाचार्य क्षायोपशमिक भाव का पारिभाषिक लक्षण करते हैं कि वर्तमानकाल में सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय हो, आगामी काल की अपेक्षा उन्हीं का सद्वस्था रूप उपशम हो और देशघाती स्पर्धकों का उदय हो तब जीव का यह आत्मपर्याय परिणाम क्षायोपशमिक भाव कहलाता है"सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति।" चार ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शन से सम्बन्धित कर्मावरणों का क्षायोपशमिक भाव होने पर वे क्रमशः क्षायोपशमिक ज्ञान, क्षायोपशमिक अज्ञान और क्षायोपशमिक दर्शन कहलाते हैं।" अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम से देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो जीव का परिणाम विशेष होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है। घातिकों की भी कुछ प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं तथा कुछ प्रकृतियाँ देशघाति हैं। उदाहरण के लिए ज्ञानावरण कर्म की मतिज्ञानावरण आदि चार प्रकृतियाँ देशघाती हैं तथा केवलज्ञानावरण सर्वघाती है। आत्मा के पूर्ण गुण को रोकने वाला सर्वघाती होता है तथा उसके आंशिक गुण को बाधित करने वाला देशघाती होता है। कर्म पुद्गलों की एक अवस्था को स्पर्द्धक कहा जाता है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायों का उदयाभावी क्षय और इन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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