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________________ 243 जीव-विवेचन (4) है। पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों को भी मिश्र औदारिक काययोग होता है। यह काययोग तीन प्रकार से होता है"- १. औदारिक की कार्मण काय से मिश्रता २. औदारिक की वैक्रिय काय से मिश्रता ३. औदारिक की आहारक काय से मिश्रता। (1) औदारिक की कार्मण काय से मिश्रता-तिर्यंच और मनुष्य जीव औदारिकशरीरनामकर्म के योग से औदारिक शरीर का आरम्भ करते हैं। जब तक औदारिक शरीर पूर्ण नहीं होता तब तक कार्मण के साथ औदारिक की मिश्रता रहती है।" इस सम्बन्ध में कहा भी गया है कि तैजस और कार्मण शरीर से जीव अन्तर रहित लगातार आहार करता है और जब तक शरीर की निष्पत्ति होती है तब तक वह मिश्र से आहार करता है। यहाँ शंका उपस्थित होती है कि औदारिक की कार्मण के साथ में मिश्रता है अथवा कार्मण की औदारिक के साथ?कार्मण शरीर संसार पर्यन्त रहता है, अतः इसकी मिश्रता तो सभी शरीरों के साथ स्वतः होती है और उत्पत्ति की अपेक्षा से औदारिक की प्रधानता में औदारिक के साथ, वैक्रिय एवं आहारक की प्रधानता होने पर क्रमशः वैक्रिय एवं आहारक के साथ कार्मण की मिश्रता होती है। इसलिए उपाध्याय विनयविजय कार्मण के साथ में मिश्रत्व का कथन न कर औदारिक, वैक्रिय या आहारक के साथ में कार्मण मिश्रत्व का कथन करते हैं। (2) औदारिक की वैक्रिय मिश्रता-वैक्रिय लब्धिमान औदारिक शरीरधारी तिर्यच पंचेन्द्रिय, मनुष्य तथा बादर वायुकाय जब वैक्रिय शरीर आरम्भ करते हैं तब शरीर की पूर्णता तक औदारिक के साथ वैक्रिय की मिश्रता रहती है। यही औदारिक की वैक्रिय मिश्रता है।" (3) औदारिक की आहारक मिश्रता-आहारकलब्धिप्राप्त औदारिक शरीरधारी जीव जब आहारक शरीर प्रारम्भ करता है तब पूर्णता की प्राप्ति तक उस औदारिक की आहारक के साथ मिश्रता रहती है और यही औदारिक की आहारक मिश्रता कहलाती है।" . कर्मग्रन्थकार औदारिक की वैक्रिय और आहारक से मिश्रता के सम्बन्ध में भिन्न मत रखते हैं। उनके अनुसार औदारिक शरीरधारी जीव का वैक्रिय और आहारक शरीर के आरम्भिक समय और परित्याग में समान मिश्रता रहती है। परित्याग समय में अनुक्रम से वैक्रिय और आहारक की प्रधानता नहीं रहती है। अतः औदारिक का अनुक्रम से वैक्रिय एवं आहारक के साथ में मिश्रत्व है। वैक्रिय काययोग- वैक्रियशरीरनामकर्म के योग से वैक्रियवर्गणा के स्कन्धों से बने वैक्रिय शरीरमात्र द्वारा वीर्यशक्ति का जो व्यापार होता है, वह वैक्रियकाययोग कहलाता है। यह योग देवों तथा नारकों को पर्याप्त अवस्था में सदैव होता है। वैक्रिय लब्धि प्राप्त करने पर ही मनुष्य और तिर्यचों को वैक्रिय शरीर धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है। जो शरीर कभी एकरूप और
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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