SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 242 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन 'मन' कहलाता है उससे पूर्व और पश्चात् नहीं। ___ आगम ग्रन्थों में सत्य मन, असत्य मन आदि चार भेदों से अतिरिक्त मन के तन्मन, तदन्यमन और नोअमन, ये तीन भेद भी मिलते हैं- 'तिविहे मणे पण्णत्ते, तं जहा- १. तम्मणे २. तदन्नमणे ३. णोअमणे।" वचन के भेदों का निरूपण तीन प्रकार से किया जा सकता है"१. संख्या अर्थ में- एकवचन, द्विवचनादि रूप में वचन शब्द। २. लिंग अर्थ में-स्त्रीवचन, पुरुषवचन, नपुसंकवचन के रूप में वचन शब्द। ३. काल अर्थ में- अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत वचन रूप में वचन शब्द। मन की भांति वचन के तद्वचन, तदन्यवचन और नोअवचन भेद भी आगम ग्रन्थ में मिलते काया मन के समान पूर्णतः अजीव नहीं है। अनैकान्तिक शैली में यह जीवरूप, अजीवरूप, आत्मरूप, अनात्मरूप, रूपी, अरूपी, सचित्त और अचित्त सभी है। संसारी जीवों में कार्मण काया के सदैव रहने से काया का ऐसा प्रतिपादन किया गया है। धर्मास्तिकाय आदि में प्रयुक्त काय शब्द काया का द्योतक है। अतः अजीवों में भी इसके अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है। मन, वचन और काया इन तीन योगों में प्रथम दो योग अगुरुलघु हैं और काययोग गुरुलघु होता है। अतः लोकप्रकाशकार ने योग-भेद विवेचन में सर्वप्रथम काययोग का उल्लेख किया है और बाद में शेष दो का। जबकि आगम-ग्रन्थ एवं अन्य ग्रन्थों में मन-वचन-काय इस क्रम से योग-भेदों का वर्णन मिलता है। काययोग ___ काययोग के उपभेदों का स्वरूप इस प्रकार हैऔदारिक काययोग- औदारिक शरीर द्वारा आत्मप्रदेशों के कर्म और नोकर्म को आकर्षित करने के व्यापार की वीर्य शक्ति का नाम औदारिक काययोग है। औदारिक वर्गणा के स्कन्थों का औदारिक कायरूप परिणमन में कारणभूत आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन भी औदारिक काययोग ही है। अतः कारण में कार्य का उपचार करने से औदारिक काय को ही औदारिक काययोग कहा जाता है। यह योग औदारिक शरीरधारी तिर्यंच और मनुष्य गति के जीवों को पर्याप्त दशा में ही होता है।" औदारिक मिश्र काययोग-मिश्र अर्थात् मेला जो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन औदारिक और कार्मण दो शरीरों की सहायता से होता है वह औदारिक मिश्र काययोग कहलाता है। यह योग जीव के उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था पर्यन्त सभी औदारिक शरीरी जीवों को होता
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy