________________
जीव-विवेचन (3)
237 प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। . २७०. दर्शन सप्तक के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। २७१. दर्शन सप्तक के आंशिक क्षय और उपशम से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। २७२. पंचसंग्रह, भाग 1, योगोपयोग मार्गणा अधिकार, गाथा 16-18, पृष्ठ 141 २७३. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 26 २७४. षट्खण्डागम, धवला टीका, जीवस्थान, 1.1.12 २७५. तत्त्वार्थराजवार्तिक, भाग 2, अध्याय 9, पृष्ठ 761 २७६. 'असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टि.......उपशमेन च स्यात्। -मूलाचार, भाग 2. पृष्ठ सं. 314 २७७. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण, डॉ. सागरमल जैन, अध्याय षष्ठ, पृष्ठ सं. 58 २७८. गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण, प्रो. सागरमल जैन, पृष्ठ सं. 57 २७६. स्थूलसावधविरताद्यो देशविरतिं श्रयेत्।
स देशविरतस्तस्य गुणस्थानं तदुच्यते।।-लोकप्रकाश, भाग 1, 3.1161 २८०. पच्चक्खाणुदयादो, संजमभावो ण होदि णवरिं तु।
थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ।।-गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 30 २१. जो तसवहाउ विरदो, अविरदो तह य थावरवहादो।
एक्कसमयम्हि जीवो, विरदाविरदो निसेक्कमइ।-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 31 २८२. कर्मग्रन्थ भाग 4 की भूमिका में 'गुणस्थान का विशेष स्वरूप' से उद्धृत, पृ.सं. 22 २८३. लोकप्रकाश, 3.1163-1164 २८४. षट्खण्डागम, जीवस्थान, धवला टीका, 1.1.14, पृष्ठ सं. 176 २६५. 'सम्यक् ज्ञात्वा श्रद्धाय यतः संयत इति व्युत्पत्तितस्तदवगतेः- षट्खण्डागम, जीवस्थान,
धवलाटीका, 1.1.14, पृष्ठ 178 २८६. मूलाचार भाग 2, गाथा 1197-1198 की व्याख्या, पृष्ठ सं. 314 २६७. पंचमसंग्रह भाग 1, योगोपयोग मार्गणा अधिकार, गाथा 16-18. पृष्ठ 142-143 २८८. "वत्तावत्त-पमाए जो वसइ पमत्तसंजदो होइ। सयल-गुण-सील-कलिओ महव्वई चित्तलायरणो।।
-षट्खण्डागम धवला टीका, जीवस्थान, 1.1.14, पृष्ठ सं. 179 २८६. द्रष्टव्य- (क) तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9.1.17,पृष्ठ सं. 762
(ख) संजलंणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो विय तम्हा ह पमत्तविरदो सो।
-गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिकाकर्णाटवृत्ति, गाथा 32, पृष्ठ सं. 60 २६०. मूलाचार, गाथा 1197-1198 की व्याख्या से उद्धृत, पृष्ठ सं. 314 २६१. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 34, पृष्ठ सं. 62 २६२. षट्खण्डागम जीवस्थान, 1.1.14, पृष्ठ सं. 179 २६३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 34, पृष्ठ 62 २६४. लोकप्रकाश, 3.1163 २६५. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण, प्रो. सागरमल जैन, षष्ठ अध्याय, पृष्ठ सं. 59 २६६. कर्मग्रन्थ भाग 4 की भूमिका से उदधृत, पृष्ठ सं. 23 २६७. (क) लोकप्रकाश, 3.1166 .... (ख) द्रष्टव्य - 'न प्रमत्तसंयताः अप्रमत्तसंयताः पंचदशप्रमादरहितसंयता इति
यावत्। -षट्खण्डागम धवला टीका, जीवस्थान 1.1.15, पृष्ठ सं. 179 २६८. षट्खण्डागम जीवस्थान धवला टीका, 1.1.15 पृष्ठ सं. 179-180 २६६. 'संयमनिबन्धनसम्यक्त्वापेक्षया सम्यक्त्वप्रतिबन्धककर्मणां क्षयक्षयोपशमोपशम- जगुणनिबन्धनः' -