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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन २४५. लोकप्रकाश, 3.1294 २४६. लोकप्रकाश, 3.1295 २४७. लोकप्रकाश, 3.1296 २४८. स्थानांग सूत्र, 10/734 २४६. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 15 २५०. षट्खण्डागम धवला टीका, जीवस्थान, 1.1.10. पृष्ठ सं. 164 २५१. (क) स्थानांग सूत्र 10.734
(ख) लोकप्रकाश, 3.1288 २५२. लोकप्रकाश, 3.1150 और 1151 २५३. (क) लोकप्रकाश, 3.1141 (ख)पंचसंग्रह, भाग 1, योगोपयोग मार्गणा अधिकार, गाथा 16-18 की
व्याख्या, पृष्ठ सं. 139 २५४. पृषोदरादित्वाद्यशब्दलोपः कृबहुलमिति कर्तर्यनट। -अभिधानराजेन्द्र कोश,
भाग-सासणसम्मदिदट्ठिगुणट्ठाण २५५. 'यथा हि भुक्तक्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरान्नरसमास्वादयति तथैषोऽपि
मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्वहन् तद्रसमास्वादयति। ततः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्च तस्य गुणस्थानं सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम्। -अभिधानराजेन्द्रकोश,
सासणसम्मद्दिट्ठिगुणट्ठाण २५६. षट्खण्डागम 1,1,10 की व्याख्या, पृष्ठ 165 २५७. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 19, पृष्ठ 50 २५८. (अ) लोकप्रकाश, 3.1154-1155
(ब) सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तंतर सव्वघादिकज्जेण।
न य सम्म मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो।।-गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 21 २५६. समीचीनासौ मिथ्या च सम्यग्मिथ्या, सा दृष्टि:- श्रद्धानं यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति
व्युत्पत्तेरपि पूर्वपरिगृहीतातत्त्वश्रद्धानापरित्यागेन सह तत्त्वश्रद्धानं भवति तथासंभवकारणसभावात्। -गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्णाटवृत्ति, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा 22
की टीका, पृष्ठ सं. 52 २६०. (अ) गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 22
(ब) पंचसंग्रह, योगोपयोग मार्गणा अधिकार, गाथा 16-18, पृष्ठ सं. 140 २६१. (अ) षट्खण्डागम जीवस्थान, 1.1.11, पृष्ठ सं. 170
(ब) मूलाचार, भाग 2, पृष्ठ सं. 314 २६२. गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण, प्रो. सागरमल जैन, अध्याय षष्ठ, पृष्ठ सं. 55 २६३. पंचसंग्रह, योगोपयोगमार्गणा अधिकार, गाथा 16-18. पृष्ठ 141 २६४. षट्खण्डागम जीवस्थान, 1.1.11, पृष्ठ सं. 170 २६५. पंचसंग्रह, भाग 1, योगोपयोगमार्गणा अधिकार, गाथा 16-18, पृष्ठ सं. 140-141 २६६. गोम्मटसार जीवकाण्ड, भाग 1, गाथा 23, पृष्ठ सं. 52-53 २६७. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण, प्रो. सागरमल जैन, अध्याय षष्ठ, पृष्ठ सं. 56 २६८. (अ) सावधयोगाविरतो यः स्यात्त्सम्यकत्ववानपि।
गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्ट्याख्यमस्य तत्।।-लोकप्रकाश, द्रव्यलोक, 3.1157
(ब) प्रवचनसारोद्धार, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, द्वार 224, पृष्ठ संख्या 297 | २६६. औपशमिक सम्यक्त्व-मिथ्यात्व का आश्रय पाकर बंधने वाले अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ
तथा मिथ्यात्व, सम्यक्त्व एवं सम्यक मिथ्यात्व प्रकृति नामक तीन दर्शनमोह इन कुल सात