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________________ 223 जीव-विवेचन (3) 13. सयोगीकेवली गुणस्थान क्षीणकषाय गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहने के पश्चात् क्षपक श्रेणी का साधक तेरहवें गुणस्थान में आ जाता है। यह साधक और सिद्ध के बीच की कैवल्य अवस्था है। जीव के इस गुणस्थान में पहुंचने पर बन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग इन पाँच कारणों में से योग के अतिरिक्त चार कारणों की भी समाप्ति हो जाती है। आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन अघाती कमों की स्थिति रहने से आत्मा और देह के साथ सम्बन्ध बना रहता है। फलस्वरूप कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार जिन्हें जैन दर्शन में योग कहते हैं, वे भी यथावत् बने रहते हैं। इस प्रकार योग की सत्ता विद्यमान होने से जीव 'सयोगी' कहलाता है। घाती कों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय) के क्षय से जीव 'केवली' संज्ञा से अभिहित होता है। अतः योग वाले केवली जीव को सयोगी केवली कहते हैं और उसके गुणस्थान को सयोगीकेवली गुणस्थान कहते कैवल्युपेतस्तैर्योगैः सयोगी केवली भवेत्। सयोगिकेवल्याख्यं स्यात् गुणस्थानं च तस्य यत्।। इस गुणस्थान में मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ होती हैं और इनके कारण बन्धन भी होता है, लेकिन कषायों के अभाव के कारण इनकी स्थिति नहीं बन पाती है। पहले क्षण में उनका बन्ध होता है, दूसरे क्षण में उनका प्रदेशोदय के रूप में विपाक होता है और तीसरे क्षण में वे कर्म परमाणु निर्जरित हो जाते हैं। अतः इस अवस्था में योग के कारण होने वाले बन्धन और विपाक की प्रक्रिया को कर्म-सिद्धान्त की मात्र औपचारिकता ही समझना चाहिए। इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैनदर्शन में अर्हत, सर्वज्ञ अथवा केवली कहा जाता है। वेदान्त के अनुसार यही अवस्था जीवन्मुक्ति अथवा सदेह मुक्ति की अवस्था है। केवली जीव सयोगी अवस्था में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ कम करोड़ पूर्व वर्ष तक रहते हैं। सयोगी केवली यदि तीर्थकर हो तो वे तीर्थ की स्थापना करते हैं। यद्यपि क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे या सातवें गुणस्थान में ही हो जाती है तथापि उसमें परिपूर्णता ज्ञानावरण और दर्शनावरण के पूर्णतया क्षय होने पर तेरहवें गुणस्थान में ही आती है, जो सिद्धि पर्यन्त बनी रहती है। इस अपेक्षा से क्षायिकसम्यक्त्व 'सादि-अनन्त' है। इस गुणस्थानवर्ती केवली भगवन्तों को मन, वचन एवं काया- इन तीनों योगों की प्रवृत्ति रहती है। अनुत्तरविमानवासी देवों अथवा मनःपर्यवज्ञानी द्वारा मन से पूछे गए प्रश्न का समाधान करने के लिए ये मनोवर्गणा रूप मनोयोग का प्रयोग करते हैं, उपदेश देने के लिए वचनयोग का तथा हलन-चलनादि क्रियाएँ करने के लिए काययोग का प्रयोग करते हैं
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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