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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन इस विषय में कर्मग्रन्थ के लघुवृत्तिकार का कथन है कि जो जीव अत्यन्त शुद्ध परिणामी हो, उत्तम संहनन वाला हो, पूर्व से ही ज्ञान वाला हो, अप्रमत्त हो, शुक्लध्यानोपगत अथवा धर्मध्यानोपगत हो वही क्षपक श्रेणि प्रारम्भ करता है
तथोक्तं कर्मग्रन्थलघुवृत्तौ- 'क्षपक श्रेणिप्रतिपन्नः मनुष्यः वर्षाष्टकोपरिवर्ती अविरतादीनां अन्यतमः अत्यन्तशुद्धपरिणामः उत्तमसंहननः तत्र पूर्वविद् अप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि केचन धर्मध्यानोपगतः इत्याहुः ।
___ विशेषावश्यक वृत्ति के अनुसार पूर्वधर और अप्रमत्त संयमी शुक्ल ध्यान में रहकर अथवा अविरति आदि धर्मध्यान में रहकर भी क्षपक श्रेणि आरम्भ करते हैं-'विशेषावश्यक वृत्तौ च पूर्वधरः अप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतः अपि एतां प्रतिपद्यते शेषास्तु अविरतादयः धर्मध्यानोपगता इति निर्णयः।२६
क्षपकश्रेणी का जीव चतुर्थ से सप्तम तक के किसी भी एक गुणस्थान में रहते हुए अन्तर्मुहूर्त में एक साथ अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और मिथ्यात्व, मिश्र एवं समकित मोहनीय इस दर्शन सप्तक का नाश करता है। तत्पश्चात् जिस तरह अग्नि एक काष्ठ को आधा दग्ध कर प्रायः अन्य काष्ठ में पहुँच कर उसे भी जलाती है उसी तरह क्षपक श्रेणी का जीव आठवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्कों के क्षय के साथ-साथ अन्य कर्मों की प्रकृतियों का भी क्षय करता है। नवें गुणस्थान में पहुंचकर सूक्ष्म संज्वलन लोभ को छोड़कर शेष कषाय चतुष्क और नोकषाय के तीनों वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंसक) का क्षय करता है। दसवें गुणस्थान में वह साधक संज्वलन लोभ का भी निर्मूलन कर देता है। लोभ नाश के पश्चात् क्षपक मुनि मोह सागर को पार कर लेते हैं। फिर अन्तर्मुहूर्त विश्राम कर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं। यहाँ पहुँच कर प्रथम क्षण में निद्रा और प्रचला का नाश करते हैं और अन्तिम समय में पाँच ज्ञान के आवरण, चार दर्शन के आवरण तथा पाँच अन्तराय- कुल चौदह कर्म प्रकृतियों का विनाश कर 'जिन' हो जाते हैं। अतः लोकप्रकाशकार कहते हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों का क्षय करने वाला जिन कहलाता है
पंचज्ञानावरणानि चतस्रो दर्शनावृतीः ।
पंचविघ्नांश्च क्षणेऽन्त्ये क्षपयित्वा जिनो भवेत्।। बारहवें गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इस अन्तर्मुहूर्त काल के अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीनों कर्मों के आवरणों को नष्ट कर क्षपक श्रेणि साधक अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तशक्ति से युक्त हो विकास की अग्रिम श्रेणी में चले जाते हैं।