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________________ 224 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन मनोवाक्कायजाश्चैवं योगाः केवलिनोऽपि हि। भवन्ति कायिकस्तत्र गमनागमनादिषु ।। वाचिको यतमानानां जिनानां देशनादिषु । भवत्येवं मनोयोगोऽप्येषां विश्वोपकारिणाम्।। मनः पर्यायवद्भिर्वा दैवैर्वानुत्तरादिभिः। .. पृष्टस्य मनसार्थस्य कुर्वतां मनसोत्तरम् ।। सयोगी केवली जीव में यदि वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति अधिक हो और आयुष्य कर्म की स्थिति कम हो, तो इन चारों अघाती कर्मों की स्थिति समान करने के लिए वे केवलीसमुद्घात करते हैं, किन्तु यदि चारों की स्थिति समान हो तो समुद्घात नहीं करते हैं।३३० तेरहवें गुणस्थान के अन्त में अघाती कर्मों का क्षय करने के लिए वे जीव लेश्यातीत शुक्लध्यान को स्वीकार करते हैं और योगनिरोध के लिए उपक्रम करते हैं। पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग का एवं तत्पश्चात् बादर वचनयोग का निरोध करते हैं। तदनन्तर क्रमशः सूक्ष्म काययोग, सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करके चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। 14. अयोगीकेवली गुणस्थान आत्मविकास के साधक सयोगीकेवली जब योगों से रहित हो जाते है तब वे अयोगीकेवली कहलाते हैं और उनका यह गुणस्थान अयोगी केवली गुणस्थान कहा जाता है नास्ति योगोऽस्येत्ययोगी तादृशो यश्च केवली। गुणस्थानं भवेत्तस्यायोगि केवलिनामकम् ।।” यह गुणस्थान चारित्र विकास और स्वरूप स्थिरता की चरम अवस्था है। सयोगीकेवली गुणस्थान में यद्यपि आत्मा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, फिर भी आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने के कारण शारीरिक उपाधियाँ लगी रहती हैं। तेरहवें गुणस्थान में तो वह जीव निष्काम भाव से उनका भोग करता है। लेकिन जब वह अपना आयुष्य पूर्ण होते देखता है तब आवश्यक होने पर केवलीसमुद्घात करता है और तत्पश्चात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान के द्वारा क्रमशः बादर और सूक्ष्म काययोग, मनोयोग और वचनयोग का निरोध करता है। तदनन्तर सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान से अपने शरीर के मुख, उदर आदि पोले भागों को पूर्ण करते हुए शरीर के तृतीय भाग परिमाण आत्मप्रदेशों का संकुचन कर उन्हें वर्तमान शरीर के दो तिहाई भाग जितने आकार का कर लेता है। इसके बाद वह अयोगी केवली समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपातिशुक्लध्यान को प्राप्त करता है और पाँच हृस्वाक्षर (अ, इ, उ, ऋ और लू) के उच्चारण जितने समय में शैलेषीकरण के द्वारा चारों अघाती कमों का सर्वथा क्षय करके एक समय में ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन कर लोक के
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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