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________________ जीव-विवेचन (3) कारण जीव स्वस्वरूप में स्थित होने का प्रयास नहीं कर पाता और नैतिक आचरण नहीं कर पाता वह चारित्र-मोह कहलाता है। इस प्रकार दर्शनमोह विवेक बुद्धि को कुण्ठित करता है और चारित्र मोह सत्प्रवृत्ति को अवरुद्ध करता है। आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में आत्मा दो प्रमुख कार्य करती है- १. स्वरूप और पररूप का यथार्थ दर्शन करना २. स्वरूप में स्थित होना। दर्शनमोह, चारित्रमोह की अपेक्षा अधिक प्रबल होता है। अतः दर्शन-मोह का क्षय करके जो स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर लेता है, वह स्वशक्ति से चारित्रमोह को समाप्त कर स्वरूप लाभ भी कर ही लेता है । आत्मा के ये दोनों कार्य ग्रन्थि - भेद की प्रक्रिया से पूर्ण होते हैं। मोह के दर्शनमोह और चारित्र मोह इन दो भेदों के आधार पर ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया दो बार मानी गई है। प्रथम गुणस्थान के अन्त में होने वाली ग्रन्थि भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध दर्शनमोह के आवरण की समाप्ति करने से है, जबकि सातवें, आठवें और नवें गुणस्थानों में होने वाली ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध चारित्रमोह को समाप्त करने से है। पहली बार होने वाली प्रक्रिया से सम्यग्दर्शन का लाभ होता है तथा दूसरी बार होने वाली प्रक्रिया से सम्यक् चारित्र का उदय होता है। एक से दर्शन शुद्धि होती है और दूसरी से चारित्र शुद्धि। दर्शनविशुद्धि के पश्चात् यदि उसमें टिकाव रहता है तो चारित्रविशुद्धि अनिवार्यतः होती है। सम्यग्दर्शन का स्पर्श कर लेने पर आत्मा की चारित्रिक विशुद्धि और उसके फलस्वरूप मुक्ति अवश्य ही होती है। ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया तीन करण से पूर्ण होती है- यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तकरण | इसी सम्बन्ध में लोकप्रकाशकार कहते हैं तं त्रिधा तत्र चाद्यं स्याद्यथाप्रवृत्तनामकम्। अपूर्वकरणं नामानिवृत्तिकरणं तथा ।। " २१७ २१८ करण से अभिप्राय मन का परिणाम है- परिणामविशेषोऽत्र करणं प्राणिनां मतम् । मिथ्यात्व, नौ नोकषाय और चार मूलकषाय इन कुल चौदह की अभ्यन्तर ग्रन्थि आगम में स्वीकार 199 २१६ की जाती है। * प्रथम करण से ग्रन्थिदेश तक पहुँचा जाता है, द्वितीय करण से ग्रन्थि का भेदन होता है और तीसरा करण ग्रन्थि भेदन के अनन्तर होने वाला परिणाम है, कहा भी हैवक्ष्यमाणग्रन्थिदेशावधि प्रथममीरितम् । द्वितीयं भिद्यमानेऽस्मिन् भिन्ने ग्रन्थौ तृतीयकम् ।।' यथाप्रवृत्तिकरण - यथा अर्थात् सहजतया प्रवृत्ति अर्थात् कार्य तथा करण अर्थात् जीव का परिणाम | सहजतापूर्वक किए गए कार्यों से जीव के परिणामों में शिथिलता आना यथाप्रवृत्तिकरण कहलाता है। प. सुखलाल जी के शब्दों में अज्ञानपूर्वक दुःख - संवेदनाजनित अत्यल्प आत्म-विशुद्धि
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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