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________________ 198 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन शक्ति बनाए रखने के लिए आहार की निरन्तर आवश्यकता रहती है। तीसवां द्वार : गुणस्थान-विवेचन मोक्ष-प्राप्ति भारतीय दर्शन का प्रमुख लक्ष्य है। इसके लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों से गुजरना होता है। ये विभिन्न श्रेणियां आध्यात्मिक विशुद्धि के विभिन्न स्तर बन जाती हैं, जिन्हें जैन दार्शनिकों ने 'गुणस्थान' की अवधारणा से प्रस्तुत किया है। इस अवधारणा के आधार पर किसी भी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का मूल्यांकन किया जा सकता है। जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक विकास के इन विभिन्न स्तरों का विवेचन व्यवहार नय से ही किया है, निश्चय नय से तो आत्मा सदैव अविकारी है, अतः उसमें कोई विकास प्रक्रिया नहीं होती है। वह बन्धन एवं मुक्ति तथा विकास एवं पतन से निरपेक्ष है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र जीव के स्वाभाविक गुण हैं। इन गुणों के शुद्धि-अशुद्धि कृत स्वरूपविशेष को 'गुणस्थान' कहते हैं। गुणों की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं, परन्तु ये गुण-आवरक कर्मों द्वारा आच्छादित हैं। आवरक कर्मों की आच्छादन शक्ति की तरतमता और अल्पाधिकता से गुणों का स्थानभेद होता है। अतः यह स्थानभेदगत स्वरूपविशेष ही 'गुणस्थान' कहा जाता है। षट्खण्डागम के धवलाटीकाकार का कहना है कि जीव जिन गुणों में सहजता से रहता है वही जीवसमास अर्थात् गुणस्थान हैं। ___ आत्मगुणों में शुद्धि का अपकर्ष और अशुद्धि का उत्कर्ष आम्नव और बन्ध इन दो कारणों से होता है। आसव के द्वारा कर्मों का आगमन और बंध के कारण दूध-पानी के समान कर्मों की आत्मा के साथ सम्बद्धता होती है। इस तरह आत्मगुणों पर आवरण गाढ़ा होता जाता है जिससे अशुद्धि का उत्कर्ष होता है। आत्मगुणों में अशुद्धि के अपकर्ष और शुद्धि के उत्कर्ष के हेतु संवर और निर्जरा है। संवर द्वारा नवीन कमों के आगमन का निरोध होता है तथा निर्जरा के द्वारा पूर्वसम्बद्ध कर्ममलों का क्षय होता जाता है जिससे आत्मगुणों की शुद्धि में उत्कर्षता एवं अशुद्धि में न्यूनता बढ़ती रहती है। आत्मगुणों का यही विकासक्रम 'गुणस्थान' है। ___ आत्मगुणों को आवरित करने में मोह प्रधान आवरक है। मोह जितना अधिक तीव्र होगा तो गुणों का आवरण भी उतना ही अधिक तीव्र होगा। अतः जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक उत्क्रान्ति को अभिव्यक्त करने वाले गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना इसी मोहशक्ति की उत्कटता, मन्दता तथा अभाव के आधार पर की है। जैन दर्शन में मोह की दो शक्तियों का उल्लेख मिलता है- १. दर्शन मोह और २. चारित्र मोह। दर्शन-मोह की शक्ति जीव को स्व स्वरूप की यथार्थता का बोध नहीं होने देती और इसी के कारण कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विवेक उत्पन्न नहीं हो पाता। जिस मोह शक्ति के
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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