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________________ जीव-विवेचन (3) 197 चार वक्र- इस वक्रगति में जीव को निश्चित स्थान पर पहुँचने में पाँच समय लगते हैं। एक विदिशा से निकलकर अन्य विदिशा में उत्पत्ति की स्थिति में यह गति होती है। तीन वक्र की गति के समान ही चार समय तक गति कर पाँचवें समय में विदिशा में स्थित उत्पत्ति स्थान में पहुँचता है। इस प्रकार पाँच समय की विग्रहगति कही गई है। २०० सामान्यदृष्टि से उत्पत्ति के प्रथम समय में जीव कभी आहारक होता है, कभी अनाहारका द्वितीय और तृतीय समयों में भी कभी आहारक एवं अनाहारक होता है, किन्तु चतुर्थ समय में तो नियम से आहारक होता है। निराहारी जीव अल्प हैं और आहारी जीव असंख्य गुणा हैं। २०६ सूक्ष्म और बादर जीव- विग्रह गति में तीन या चार क्षण के लिए ये दोनों जीव आहार रहित होते हैं शेष भवपर्यन्त निरन्तर आहारक होते हैं। उत्पन्न होने के साथ से ही इनको ओज आहार होता है फिर लोमाहार होता है। ये सचित्त, अचित्त और मिश्र तीनों प्रकार का आहार करते हैं।२१० विकलेन्द्रिय- विग्रहगति के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण भव में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव आहारक होते हैं। प्रथम इनको ओज आहार तत्पश्चात् लोमाहार और कवलाहार होते हैं। सचित्तादि तीनों प्रकार के आहार होते हैं। इनके दो आहार के मध्य का उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त काल है।” तिर्यच पंचेन्द्रिय- तिर्यंच पंचेन्द्रिय को ओजाहारादि तीनों और सचित्ताहारादि तीनों कुल छहों प्रकार के आहार होते हैं। तीन पल्योपम आयुष्य वाले तिर्यंच की अपेक्षा से कवलाहार का उत्कृष्ट अन्तर दो दिन और जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का होता है।२१२ मनुष्य- गर्भज मनुष्य को तीनों प्रकार के (ओजाहारादि) के आहार होते हैं। कवलाहार का उत्कृष्ट अन्तर तीन दिन का होता है। ये जीव विग्रहगति में दो समय, सातवें केवलिसमुद्घात में तीन, चार एवं पाँचवें क्षण और अयोगित्व में असंख्य समय तक अनाहारक रहते हैं। सम्मूर्छिम मनुष्य को कवलाहार से भिन्न आहार होते हैं।" देव- देवों को ओज और लोम दो प्रकार के आहार होते हैं, कावलिक आहार नहीं होता। मन से प्राशन करने वाला मनोभक्षी आहार होता है। इनके आहार का जघन्य अन्तर चौथ भाक्तप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर ३३ हजार वर्ष होता है। नारक- इन्हें भी ओज और लोम ये दो प्रकार के आहार ही होते हैं। आभोग और अनाभोग पूर्वक लोमाहार होता है। प्रथम ओजाहार अन्तर्मुहूर्त में एवं दूसरा समय-समय पर होता है। - आहारक एवं अनाहारकों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि अनाहारकों की अपेक्षा आहारक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहार ही इन्द्रियादि के रूप में परिणत होता है और इन्द्रियादि की
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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