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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन पर्याप्तिरुच्यते।।"-षट्खण्डागम, धवला टीका, प्रथम खण्ड-प्रथम स्थान सत्प्ररूपणा
जीवस्थान, सूत्र 34. पृष्ठ 257 १६०. "आहारादिपुदगलानामादानपरिणामयोः । जन्तोः पर्याप्तिनामोत्था शक्तिः पर्याप्तिरत्र सा।।"- .
लोकप्रकाश, 3.15 १६१. पर्याप्ताव्यपदिश्यन्ते याभिः पर्याप्तयस्तु ताः। -
पर्याप्तापर्याप्तभेदादत एव द्विधांगिनः । लोकप्रकाश, 3.7 १६२. 'पुद्गलोपचयादेव भवेत्सा च षड्विधा।
आहारांगेन्द्रियश्वासोच्छवास-भाषा मनोऽभिधा।। -लोकप्रकाश, सर्ग 3.16 १६३. लोकप्रकाश, 3.17 से 21, 23, 29 एवं 30 १६४. (अ) लोकप्रकाश, 3.36
(आ) मूलाचार, 12वाँ पर्याप्त्याधिकार की गाथा 1047 भी इसी तथ्य को प्रकट करती है यथाआहारे य सरीरे तह इंदिय आणपाणभासाए।
होति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणक्खादा।। १६५. लोकप्रकाश, 3.41 १६६. (अ) समाप्य स्वार्ह पर्याप्तीमियन्ते नान्यथाध्रुवम। लोकप्रकाश 3.9
(आ) जीवाजीवाभिगम, प्रथमप्रत्तिपत्ति, पृथ्वीकाय वर्णन १६७. करणानि शरीराक्षादीनि निवर्तितानि यैः।
ते स्युः करणपर्याप्ताः करणानां समर्थनात्।।- लोकप्रकाश, 3.10 १६८. असमाप्य स्वपर्याप्तीमियन्ते ये अल्पजीविनाः। ___लध्याते ते स्युरपर्याप्ता यथा निःस्वमनोरथाः। -लोकप्रकाश, 3.12 . १६६. म्रियन्ते अल्पायुषो लब्धपर्याप्ता इह येऽङ्गिनः ।
तेऽपि भूत्वैव करणपर्याप्ता नान्यथा पुनः।। - लोकप्रकाश, 3.14 १७०. पर्याप्तित्रययुक्तोऽन्तर्मुहूर्तेनायुरग्रिमम्।
बद्धा ततोऽन्तरर्मुहूर्तमबाधान्तस्य जीवति।।-लोकप्रकाश, 3.32 १७१. 'निर्वर्तितानि नाद्यापि प्राणिभिः करणानि यैः। .
देहाक्षादीनि करणापर्याप्तास्ते प्रकीर्तिताः।।- लोकप्रकाश, 3.13 १७२. पज्जत्तस्स्य उदये णियणियपज्जत्ति णिट्ठिदा होदि।
जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति अपुण्णगो भवंति।। यावच्छरीरमपूर्ण निर्वत्यपर्याप्तकस्तावत्। गोम्मटसार, जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका
टीका, गाथा 121 १७३. षट्खण्डागम, पुस्तक संख्या 2. प्रथम खण्ड, प्रथम भाग, सूत्र 416 १७४. मनोवचः कायबलान्यक्षाणि पंच जीवितम्।
श्वाश्चेति दश प्राणा द्वारेऽस्मिन्नेव वक्ष्यते। लोकप्रकाश, 3.42 १७५. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा 121 के अनुसार उच्छवास कर्म का उदय
पर्याप्तकाल में ही होता है; द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त पर्याप्तों में ही स्वरनामकर्म का उदय होता है; नोइन्द्रियावरण का क्षयोपशम पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही होता है। अतः मन, वचन