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तब प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है । इस आरे के तीसरे भाग में छह संघयण तथा छह संस्थान होते हैं । अवगाहना एक हजार धनुष से कम होती है। जीव स्वकृत कर्मों के अनुसार चारों गतियों में जाते है तथा कर्म क्षय कर मोक्ष में भी जाते है। ४. दुःषम-सुषम : इसका काल ४२ हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का है । इसमें दुःख ज्यादा और सुख कम होता है । इस आरे में मनुष्य का उत्कृष्ट शरीरमान ५०० धनुष, उत्कृष्ट आयुष्य पूर्व क्रोड वर्ष तथा आहार अनियमित होता है। शरीर में ३२ पसलियाँ होती हैं । छह संघयण व छह संस्थान होते हैं । इस आरे में युगलिकों की उत्पत्ति नहीं होती है । इस आरे में २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव तथा नौ प्रतिवासुदेव होते हैं। ५. दुःषम : इसका कालमान इक्कीस हजार वर्ष का है। इसमें दुःख की अधिकता होने से इसका नाम दुःषम है। जघन्य आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का तथा उत्कृष्ट साधिक सौ वर्ष का होता है 1 उत्कृष्ट अवगाहना ७ हाथ होती है । पसलियाँ १६ तथा अन्तिम संघयण व अन्तिम संस्थान होता है । इस आरे में जन्मा जीव मोक्ष प्राप्त नहीं करता है। इस आरे के अन्तिम दिन का तीसरा भाग बीतने पर जाति, धर्म, व्यवहार, सदाचार आदि का लोप हो जाता है । वर्तमान में यही आरा चल रहा है। ६. दुःषम-दुःषम : इक्कीस हजार वर्ष का यह छट्ठा आरा अत्यन्त दुःखमय होने से इसका नाम दुःषम-दुःषम है। इस काल में मानव की देह एक हाथ, पुरुष का आयुष्य २० वर्ष तथा स्त्री का आयुष्य १६ वर्ष का होता है। पसलियाँ ८ व आहार अमर्यादित होता है। छह वर्ष की कुरूपवान् बाला गर्भधारण कर बच्चे को जन्म देती है। सुअर के सदृश सन्ताने अधिक होती हैं । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संघयण, संस्थान, रूप आदि सब कुछ अशुभ होते हैं । प्राणी अत्यधिक क्लेशकारी होते हैं। गंगा तथा सिंधु नदियों के किनारे स्थित ७२ बिलों में मनुष्य रहते हैं । दिन में सख्त ताप व रात में भयंकर ठण्डक होती है। रात्रि में बिलवासी
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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