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५७) पुण्य तत्त्व को हेय तथा उपादेय, दोनों प्रकार में क्यों उल्लिखित किया
गया है? उत्तर : जब तक जीवात्मा मोक्ष में नहीं पहुँचता है, तब तक पुण्य उपादेय
अर्थात् ग्रहण करने योग्य है क्योंकि पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्य जीवन, श्रेष्ठ कुल, स्वस्थ शरीर, विचक्षण बुद्धि, जिनधर्म, सुदेव तथा सुगुरु इन की पुण्य के परिणाम स्वरूप ही प्राप्ति होती हैं। अगर पुण्य नहीं होगा तो इन सबकी प्राप्ति नहीं होगी और इनके अभाव में संयम व मोक्ष की आराधना कैसे होगी ? अतः व्यवहार नय से पुण्य उपादेय है। ज्योंहि मंजिल प्राप्त होती है, सीढियाँ स्वतः छूट जाती है, इसी प्रकार जीव पुण्य से समस्त अनुकूलताओं के प्राप्त होने पर मोक्षमार्ग पर गतिशील हो जाता है, तब पुण्य सोने की बेडी रूप होने
से हेय अर्थात् त्याग करने योग्य होता है। ५८) आश्रव तत्त्व को हेय क्यों कहा गया ? उत्तर : आत्मा के अंदर अनवरत रूप से शुभाशुभ कर्मों का आगमन होने से
आत्मिक गुण आवृत्त होते जाते हैं, जिससे जीव को स्वयं के स्वरूप
का भान नहीं रहता, अतः आश्रव तत्त्व हेय है। ५९) संवर तत्त्व उपादेय क्यों है ? उत्तर : आते हुए कर्मों को रोकने से आत्मा के गुण अनावृत्त होते हैं, जिससे
जीव का निजस्वरूप प्रकट होने लगता है, अतः संवर तत्त्व उपादेय
है।
६०) निर्जरा तत्त्व की उपादेयता क्यों है ? उत्तर : पुराने बंधे हुए कर्मों को आत्मा से विलग निर्जरा तत्त्व द्वारा किया जाता
है। जैसे-जैसे कर्मों की निर्जरा होती है, वैसे-वैसे आत्म स्वरूप प्रकट ___ होता जाता है, इसलिये निर्जरा तत्त्व उपादेय है। ६१) मोक्ष तत्त्व उपादेय क्यों है ? उत्तर : कर्मो का संपूर्ण क्षय होना मोक्ष है । जब मोक्ष प्राप्त होता है, तो जीव
अपने संपूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। उसमें किसी भी प्रकार
का कर्म विकार रूप मल नहीं रहता । इस अमल-निर्मल तथा संपूर्ण १७२
श्री नवतत्त्व प्रकरण