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________________ :४६६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : को लौटाने से मना किया, अतः नमिराजा वहां युद्ध करने को आया और चन्द्रयशा के नगर को घेर लिया। जब मदनरेखा आर्या को इसकी सूचना मिली तो उसने वहां आकर नमि से कहा कि-हे वत्स नमि ! बड़े भाई के साथ तेरा युद्ध करना अयुक्त है । यह सुन कर नमिने विस्मित होकर पूछा कि-चन्द्रयशा मेरा बड़ा भाई क्यों कर हैं ? इस पर आर्याने अपना सर्व वृत्तान्त कह सुनाया जिसे सुन कर नमिराजाने अपने पिता के नाम की मुद्रिका को देखा जिससे उसको अधिक निश्चय हो गया, अतः वह युद्ध से निवृत्त हो चन्द्रयशा के पास पहुंचा और उसको सारा वृत्तान्त कह सुनाया । फिर दोनों भाई आपस में अत्यन्त स्नेह से मिले और अनुक्रम से चन्द्रयशाने नमिकुमार को अपना राज्य सौंप कर व्रत की अभिलाषा से दीक्षा ग्रहण की। दोनों राज्यों का अखंड पालन करते हुए नमिराजा के देह में छ मास की स्थितिवाला दाह ज्वर उत्पन्न हुआ। अनेकों वैद्योंने अनेकों औषधिये की तिस पर भी वह शान्त न हुआ । एक बार किसी वैद्य के कहने से उसके विलेपन के लिये सर्व राणिये चन्दन घिसने लगी। उस समय रानियों के कंकण के आपस में टकराने की आवाज से बहुत शब्द होने लगा जिसको सहन न कर सका, अतः रानियोंने सिर्फ एक कंकण अपने हाथ में रख शेष सब कंकणों को निकाल दिया। इस पर राजाने पूछा कि-अब कंकण का शब्द क्यों
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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